Thursday, March 20, 2008
बर्बाद गुलिस्ता करने को .....
टी वी वाली ममता जी ने आज अपने ब्लाग पर एक मौजू सवाल उठाया है. वह यह कि क्या वाकई उल्लू के साथ-साथ लक्ष्मी जी आती है? क्या सचमुच जहा उल्लू होते है, वहा लक्ष्मी जी भी होती है? पहली नजर मे अगर अपने अनुभवो के आधार पर अगर बात की जाए तो उनके इस सवाल का जवाब सकारात्मक ही होता है. क्योंकि जहा तक नजर जाती है दिखाई तो यही देता है कि धनवान होने के लिए पढे-लिखे होने की जरूरत नही होती है. इसका पहला उदाहरण तो यह है कि सारे पढने-लिखने वाले लोगो का इरादा कम से कम भारत मे तो एक ही होता है और वह अच्छी से अच्छी नौकरी हासिल करना. यानी नौकर बनना. इसी सिलसिले मे एक शेर भी है : बी ए किया नौकर हुए और मर गए ....
सुनते है कि हिन्दुस्तान मे कभी ऐसा भी समय था जब पढने-लिखने का अंतिम उद्देश्य नौकरी करना नही होता था. तब शायद नौकरी के लिए पढाई जरूरी नही थी. लेकिन जब से हम देख रहे है तब से तो नौकरी के लिए पढाई जरूरी नही, अनिवार्य है. बल्कि पढाई का एक ही उद्देश्य रह गया है और वह है नौकरी करना. जितनी अच्छी पढाई उतनी अच्छी नौकरी. पर अब तो यह भी जरूरी नही रह गया है. बहुत ज्यादा और अच्छी पढाई करके भी मामूली नौकरी से गुजारा करना पड सकता है और मामूली पढाई से भी बहुत अच्छी नौकरी हासिल हो सकती है. यह भी हो सकता है कि मामूली पढाई से आप नौकर रखने की हैसियत बना ले.
वैसे पढाई हमेशा नौकरी करने के लिए ही जरूरी रही है. नौकर रखने यानी मालिक बनने के लिए पढाई कभी जरूरी नही रही है. आज भी देखिए, हमारे देश मे नीतियो का अनुपालन करने यानी चपरासी से अफसर बनने तक के लिए तो योग्यता निर्धारित है, लेकिन नीति नियंता बनने के लिए कोई खास योग्यता जरूरी नही है. यह बात भारतीय गणतंत्र के उच्चतम पदो पर सुशोभित होकर कुछ लोग साबित कर चुके है. यह बात केवल भारत मे हो, ऐसा भी नही है. दुनिया भर के कई देशो मे उच्चतम पदो पर सुशोभित लोग अपनी नीतियो से दुनिया को जिस ओर ले जा रहे है उससे तो यही लगता है कि हर शाख पे ...........
ये फिराक साहब भी कुछ अजीब ही शै थे. ये ठीक है कि हर शाख पे उल्लू बैठा है, पर इससे ये कहा साबित होता है कि ये दुनिया का चमन है वो कही बर्बादी की दिशा मे बढ रहा है. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि या तो फिराक साहब किसी और गुलिस्ता की बात कर रहे थे या फिर उल्लू से खार खाए बैठे थे या फिर उनके नजरिये मे ही कुछ गड्बडी थी. वरना तो गुलिस्ता की बर्बादी के लिए उल्लू को जिम्मेदार ठहराने का कोई तुक ही नही बनता है. उनके पहले परसाई भी उल्लू लोगो के बारे मे ऐसे ही काफी कुछ अनाप-शनाप कह गए है.
मुझे लगता है कि ये सारे वक्तव्य कुंठा मे दिए गए वक्तव्य है. कायदे इन रचनाकारो को उल्लू जी लोगो की आव-भगत करनी चाहिए थी. जैसे गधे को बाप बोलते है वैसे ही इन्हे भी कम से कम चाचा तो बोलना ही चाहिए. हालांकि बाद की पीढी के कुछ साहित्यकारो ने यह भी किया. वे आज तक ऐसा कर रहे है और इसका भरपूर लाभ भी उठा रहे है. अकादमियो और पीठो से लेकर कई-कई समितियो तक इनके दर्शन किए जा सकते है. आखिर लक्ष्मी मैया ने इन्हे अपना रथ और सारथी दोनो एक साथ ऐसे ही थोडे बना लिया होगा. हम यह क्यो भूल जाते है कि अन्धेरे मे देखने की कूवत तो सिर्फ और सिर्फ उल्लू जी लोगो के पास ही होती है.
Wednesday, March 19, 2008
हॉकी का खेल और स्टिक प्रेम
इष्ट देव सांकृत्यायन
हाकी के खेल से मुझे बहुत प्यार है. करीब-करीब उतना ही जितना गिल साहब को या शाहरुख खान को. यह दावा तो मै नही कर सकता कि तभी से जब से इन दोनो स्टारो को है, पर इतना तो मै दावे के साथ कह ही सकता हू मुझे भी हाकी के उसी तत्व से प्रेम है, जिससे इन दोनो महानुभावो का है. हाकी के प्रति सम्वेदनशील हर व्यक्ति का प्रेम सही पूछिए तो हाकी के उसी तत्व से है. यह तत्व है हाकी स्टिक.
जी हा! यकीन मानिए, हाकी के खेल से जुडे मूढ्मति लोगो ने इस तत्व की बडी उपेक्षा की है. यह बात केवल हिन्दुस्तानी हाकी चिंतको के साथ हो, ऐसा भी नही है. अव्वल तो उपेक्षा का यह आरोप दुनिया भर के हाकीवादियो पर वैसे ही यूनिफार्मली सही है जैसे दुनिया भर के राजनेताओ पर चरित्रवान होने की बात. क्रिकेट के लोगो ने इस बात को समझा और नतीजा सबके सामने है. उन्होने बाल से ज्यादा बैट पर ध्यान दिया. उनकी यह रीति हमेशा से चली आ रही है. आज भारत और पाकिस्तान से लेकर आस्ट्रेलिया तक क्रिकेट रनो और ओवरो के लिए उतना नही जाना जाता जितना विवादो के लिए. वैसे भी खेल के लिए कोई कितने दिनो के लिए जाना जा सकता है? ज्यादा से ज्यादा उतने दिन जब तक खेल चले. इसके बाद? कोई जिक्र तक नही करता.
तो साल भर चर्चा मे बने रहने के लिए तो कोई न कोई एक्स्ट्रा एफर्ट चाहिए न! यह एक्स्ट्रा एफर्ट आखिर कैसे किया जाए? अब या तो सिनेमा की तरह पूरे साल कुछ न कुछ प्यार-व्यार के झूठे किस्से ही चलाए जाए या फिर विवाद गरमाए जाए. हाकी वालो के प्यार-व्यार के किस्से को कोई बहुत तर्जीह इस्लिए नही देगा क्योंकि इनकी भरती सिनेमा वालो की तरह रंग-रूप के आधार पर होती नही. जाहिर है, इनको सुन्दरता के आधार पर प्यार वाला ग्रेस मिलने से रहा. मिलना होता तो लालू जी ने पी टी उषा के बजाय बिहार की सड्को को हेमामालिनी के गाल जैसे बनाने की बात नही की होती. तो जाहिर है कि हाकी को चर्चा विवादो से ही मिलनी है और विवाद पैदा होते है डंडे से. डंडा यानी स्टिक.
दरसल हाकी से मेरा पहला परिचय भी इसी रूप मे हुआ था. हुआ यह कि स्कूल के दिनो मे कुछ मित्रो से विवाद हुआ. उन दिनो स्कूलो मे कट्टा आदि कोर्स मे शामिल नही थे. पर हाकी थी. लिहाजा अपने बचाव के लिए मै हाकी लेकर गया और फिर मुझे रन बनाना नही पडा. मैने अपने प्रतिस्पर्धी गुट से कई रन बनवाए.निश्चित रूप से गिल साहब का परिचय भी हाकी से इसी तरह हुआ होगा. इसका सफल प्रयोग उन्होने पंजाब मे किया. इस सम्बन्ध मे किसी से कोई प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नही है.
स्टिक यानी डंडे का एक मतलब लाठी भी होता है. लाठी हमारी संस्क्रिति का उतना ही अभिन्न अंग है जितना कि भ्रष्टाचार. बालको का उपनयन यानी जनेऊ होता है तो तमाम संस्कारो के बाद उन्हे दंड यानी लाठी ही थमाई जाती है. वे लाठी लेकर विद्या ग्रहण करने निकलते है. विद्यालय मे गुरुजन भी लाठी रखते है. सरकार मे पुलिस से लेकर बाबू और अफसर तक सभी किसी न किसी तरह की लाठी जरूर रखते है. उसी लाठी से वे हमेशा यह साबित करते रहते है कि भैंस उनकी है. इसीलिए जिसकी लाठी उसकी भैंस हमारे देश का सर्वमन्य सिद्धांत और कानून है.
गिल साहब इसका प्रयोग हर तरह से कर चुके है। पंजाब मे उन्होने लाठी के ही दम पर साबित किय था कि यह हमारा है. लाठी से ही उन्होने पंजाब से आतंकवाद खत्म किया था. गिल साहब दो ही बातो के लिए तो जाने जाते है. एक लाठी चलाने और दूसरा खत्म करने के लिए. जिस दिन उन्हे भारतीय हाकी संघ का सरपरस्त बनाया गया, अपन तो उसी दिन आश्वस्त हो गए थे. हाकी के भविष्य की चिंता हमने उसी दिन से छोड दी. इस्के बाद अगर किसी ने चिंता जारी रखी तो उसे हमने वही समझा जो हमारे भारत के नेता लोग जनता को समझते है. मै गिल साहब की प्रतिभा को जानता हू, पर क्या बताऊ मेरे हाथ मे कोई जोरदार लाठी नही है. वरना मै गिल साहब को भारतीय राजनीति का सरपरस्त बनाता. आप अन्दाजा लगा सकते है कि फिर क्या होता!
Thursday, March 13, 2008
बेचारा सेंसेक्स और चार्वाक
बेचारा सेंसेक्स! जब देखिए तब औंधे मुंह गिर जाता है. एक बार बढ़ना शुरू हुआ था पिछले साल. ऐसा दौडा, ऐसा दौडा... कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. उस वक्त तो ब्लू लाइन और डीटीसी की बसें भी फेल हो गईं थीं इसके आगे. लग रहा था जैसे ब्रेक ही फेल हो गया हो. कोई रोकना चाहेगा भी तो शायद न रुके. यह जानते हुए भी कि ब्रेक फेल हो जाने के बाद किसी गाडी का क्या हाल होता है हमारे जैसे तमाम नौसिखिये बाबू लोग भी पहले निवेशक बने, फ़िर मौका ताक कर ट्रेडरगिरी की ओर सरकने लगे थे. तब तक तो अईसा झटका लगा जिया में कि पुनर्जन्मे होई गवा.
जब यहाँ सेंसेक्स बढ़ रहा था, तब दुनिया भर का बाजार गिर रहा था. अमेरिका से लेकर चीन तक सब परेशान थे. तब इहाँ के एक्सपर्ट लोग इसके गिरने का कौनो अंदाजा नहीं लगा रहे थे. सबको यही लग रहा था कि बस बढ़ रहा है और बढ़ता ही जाएगा. चढ़ रहा है और चढ़ता ही जाएगा। 16 हजार था, 18 हजार हुआ, फ़िर 20 हजार हुआ, फ़िर 22 हजार हुआ. भाई लोगों को लगा कि अब ई का रुकेगा. अब तो बस बढ़ता ही चला जाएगा. 24 हजार होगा, फ़िर 26 हजार होगा. चढ़ता ही जाएगा सर एडमंड हिलेरी की तरह. एकदम एवारेस्ते पे जा के दम लेगा. अपने अगदम-बगादम वाले आलोक पुराणिक भी लगातार यही बताते रहे कि हे वाले फंड में लगाइए, हीई वाली इक्विटी में लगाइये. ई इतना बढ़ा है तो इतना बढेगा. ऊ इतना बढ़ा है तो इतना बढेगा. एक्को बार ई नहीं बताए कि गिरेगा तो का होगा. आपका हाथ-गोद कुछ बचेगा कि नहीं.सारे लोग यही बोल रहे थे भारत का बाजार बाहर के बाजार से बिल्कुल नहीं इफेक्तेद है. ई हमारी अर्थव्यवस्था के प्रगतिशील होने का संकेत है. आख़िर प्रगतिशील गठबंधन के नेतृत्व में देश चल रहा है. कोई ऎसी-वैसी बात थोड़े है!
लेकिन साब एक दिन ऐसा भी आया जब ऊ अचानक गिरने लगा. यह काम उसने बिन बताए किया. चुपचाप. जैसे पुराने जमाने में लड़की-लड़का मान-बाप की इच्छा के खिलाफ होने पर घर से भाग के शादी कर लेते थे. जब एक्के दिन में गिर के ऊ बीस हजार पे आ गया, तब लोगों को लगा कि अरे ई का हो गया ? कहाँ तो हम सोचे थे तीस हजारी होने को और कहाँ ......... खैर! तब भी कुछ लोग घबराए नहीं. मान के चल रहे थे कि सुधर जाएगा. कुछ मजे खिलाडी भी लोग तो उस दौर में खरीदी में जुट गए. सोचे सस्ता माल है, खरीद लो जितना ख़रीदते बने. लगे गाने ऐसा मौका फ़िर कहाँ मिलेगा .........
लेकिन सचमुच ऊ बहुत बढ़िया मौका साबित हुआ. ऐसा कि जैसे चाईनीज माल की दुकानें होती हैं. लगातार सेल, महासेल. पहले कहती हैं ऑफर स्टाक रहने तक. लेकिन उनका स्टाक कभी ख़त्म नहीं होता. बढ़ता ही चला जाता है. तो साहब यह भी सेल का महासेल लगा के बैठ गए. तमाम शेयरों का दाम तो लगातार गिरता ही चला गया. ऐसे जैसे इमरजेंसी के बाद भारतीय राजनेताओं का चरित्र गिरता चला गया. अब राजनेताओं और विश्लेषकों को ये नहीं सूझ रहा है कि क्या जवाब दें? असलियत बता दें कि ऐसे-वैसे कुछ कह दें. कुछ नहीं सूझा तो बेचारे यही कहे जा रहे हैं कि- हे जी जब पूरी दुनिया में गिर रहा है तो एक ठु हमारे कैसे बचेगा? ई गलोबल असर है जी!
सलाहू बोल रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि निवेशक सब सरकार पर दबाव बनाने लगे. फ़िर ऊ निवेशकों को भी सब्सीडी देने लगे. आख़िर अईएमेफ़ की मनाही तो किसानों को सब्सीडी देने पर है न! शेयर बाजार के लिए थोड़े ही है. यह भी हो सकता है कि जिन लोगों ने कर्ज लेकर निवेश किया है उनके कर्जे पूरे माफ़ कर दिए जाएँ. उप्पर से सरकार कहे कि लो हम और कर्ज दिए देते हैं तुमको. बाद में इहो माफ़ कर देंगे. ई अलग बात है इसको माफ़ करने की नौबत तब आएगी, जब तुम अगले पाँच साल बाद महंगाई की मार झेलने के बाद भी बच सकोगे.
मुझे भी लग रहा है कि सरकार जल्दी ही ऐसा कुछ करेगी. क्योंकि चुनाव का समय नजदीक है और ऐसे समय में कौनो सरकार किसी को नाराज नहीं रख सकती. मैं भी सोच रहा हूँ, ले लिया जाए. वैसे भी लोकतंत्र का उद्गम तो वहीं है .... यावाज्जीवेत सुखाज्जीवेत ....
Monday, February 18, 2008
astitva
astitva
मारा मारी मची हुयी है
केवल एक अस्तित्व की
हर तरफ़ हो रही है लड़ाई
केवाल एक अस्तित्व की
लादेन मुशर्रफ जॉर्ज बुश
सबकी है अस्तित्व की लड़ाई
अपना अस्तित्व बनाने को ही
दुसरे की पहचान मिटाई
ग्यारेह सितम्बर को अमरीका की
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर गिराई
विश्व माफिया के अस्तित्व को
मिटाने की ही टू थी कार्रवाई
अपने अस्तित्व का एहसास कराया
जब अफगान पर मिसैएल गिराई
दो अस्तित्व के तकराओ में
हाय निर्दोषों ने जान गंवाई
मिट ना सका है फ़िर भी
अस्तित्व अब तक क्यों बुराई का
कद गिरता ही जाता है क्यों
दिनोदिन भलाई का
ज़ोर जबरदस्ती से जो पाया
क्या वोही अस्तित्व है
चिंतन इसका कर जो सके
क्या ऐसा कोई व्यक्तित्व है
अस्तित्व धूँधना है तोह धूँधो
प्रेम सौहार्द और प्यार का
अस्तित्व छीन ना है तू छीनो
अपने क्रोध और अहेंकार का
है द्रर्ध विश्वास ये मेरा
दिन ऐसा भी आयेगा
मिट न सकेगा अस्तित्व भले का
अस्तित्व बुरों का मिट जायेगा
इस कारण छोडो ये भ्रम
अस्तित्व अपना जमाने का
अस्तित्व रहा है बस उसका
जो हो गया ज़माने का
देखो तू यह दुनिया भी
स्वयं एक अस्तित्व है
लहराता है जो सागर
सरिता का अस्तित्व है
प्रतीक्षा सक्सेनाFriday, February 15, 2008
आखिर कौन हूँ मैं
अस्तित्व को तलाशता
एक नारीत्व
या नारीत्व में खोया
एक अस्तित्व
आखिर कौन हूँ मैं.....
दुनिया की भीड़ में
रौंदा गया एक व्यक्तित्व
या तिनको में समाया
एक अस्तित्व
आखिर कौन हूँ मैं....
हर कदम हर डगर
गिर के सँभालने का सफर
आँधियों के बीच
ज़र्रों से बना एक घर
आखिर कौन हूँ मैं...
सुकून की चाह में
खुशियों की रह में
लड़ रही जिंदगी का समर
आखिर कौन हूँ मैं.....
हौंसलों की पतवार से
पार कर पाऊँगी क्या
तूफानों का ये सफर
आखिर कौन हूँ मैं...
प्रतीक्षा सक्सेना
Monday, February 4, 2008
बचपन में ही तय हो जाता है मनो-व्यक्तित्व
इन् दिनों मानसिक तनाव कि बातें सबसे आम चर्चा बन चुकी हैं। लोग अक्सर कहते हैं कि रोज़मर्रा कि परेशानियाँ ही उन्हें तनाव दे रही हैं, लेकिन वास्तव मैं ऐसा नही है। मनोवाज्ञानिक नज़रिये से देखें तो तनाव किसी पर्यावरण पर उतना निर्भर नही करता जितना कि उस व्यक्तिविशेष पर जो किसी भी कारन से तनाव में है। विशेषज्ञ मानते हैं कि किसी भी पेर्सोनालिटी का निर्धारण तो उसके बचपन मई ही हो जाता है। ऐसे में यदि बचपन से ही ध्यान दिया जाये तो उस बच्चे को काफी हद तक स्ट्रेस से निकाला जा सकता हैं
दरअसल परेशानियाँ तो सभी कि जिंदगी में आती हैं लेकिन कई लोग ऐसे भी होते हैं जो बड़ी से बड़ी मुश्किल में भी अपने चेहरे पर शिकन नही आने देते वही कोई इंसान ऐसा होता है जो ज़रा सी मुसिबात में ही जिंदगी से पलायन के बारें में सोचने लगते हैं। ऐसे ही लोग एक दिन या तो सुसाईड का रास्ता पकड़ लेते हैं या हर समय अपनी ही परेशानियों का रोना रोते हैं। ऐसे में यदि बचपन में थोडा बहुत ध्यान परवरिश पर दे दिया जाये तो एक ऐसे शख्सियत तैयार हो सकती है जो न सिर्फ बुढापे में आपका सहारा बन सकेगा बल्कि अपने आसपास के लोगो को भी प्रेरणा दे सकता है।
एक नज़र में जानते हैं ऐसे ही कुछ बचपन जो बता सकता है कि आपका नन्हा मुन्ना आगे चलकर किस तरह कि शख्सियत बनेगा:
ऐसा बच्चा जो बहुत शांत स्वभाव का है लेकिन थोडी देर के लिए भी अपनी माँ से अलग होते ही रोना शुरू कर देता है
इस तरह के बच्चे आगे चलकर उतावले किस्म के हो जाते हैं और जीवन में ज़रा सा भी बदलाव बर्दाश्त नही कर पते। ऐसे बच्चों में अपनी चीजों को लेकर कुछ ज्यादा ही आसक्ति हो सकती है जो कई बार परेशानी का सबब भी बन जाती hai
ऐसा बच्चा जो अपने आप मई मस्त रहता है और अकेला ही खेलता रहता है
इस तरह के बच्चे आगे चलकर भी मस्त मौला तरह के होते हैं और मुश्किल वक़्त में जुझारू प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। ऐसे पेर्सोनालिटी एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में उभर सकती है।
ऐसा बच्चा जो काफी चिर्चिदा हो और अलग थलग ही रहता हो
इस तरह के बच्चे अंतर्मुखी स्वभाब के होते हैं। मसलन वो आसानी से किसी से घुलते मिलते नही है। उनके इसी स्वभाव के कारन ही उन्हें कई बार अकेलापन इस कदर महसूस होने लगता है कि वह जिंदगी से ही दूर भागने लगते हैं।