Wednesday, June 11, 2008

क्यूंकि वो पागल है...!!!


दिनेश सक्सेना
पिछले काफी समय से अपने घर से थोडी दुरी पर मुझे एक जर्जर शरीर में कैद एक रूह दिखाई देती थी...शरीर को जर्जर इसलिए कह रहा ह क्यूंकि वो तो बिल्कुल बेजान हो चुका था या दुसरे लफ्जों में कहे तो उस चलती फिरती शख्सियत के अस्तित्व में उस शरीर का नही बल्कि उस रूह का ही योगदान ज्यादा है। वो रूह ही एहसाह दिलाती थी की ' मैं जिंदा हूँ ' ये अलग बात थी कीउसके आसपास से गुजरने वाले लोग उसे देख कर हँसते टिपण्णी करते और चले जाते। सभ्य समाज में उस औरत को पागल की संज्ञा दी गई थी।
पागल का नाम जेहन में आते ही लोगो के मन में वही फिल्मी स्टाइल के पागल घूमते होंगे। सजे धजे पागलो की जमात में नाचते गाते या फ़िर चिल्लाते...लेकिन ये औरत देखने में बिल्कुल वैसी नही थी। भाई हो भी कैसी उसे पागल का किरदार नही निभाना था बल्कि उसे तो उस किरदार को जीना है। जी रही है वो,, पागल है फ़िर भी अलग है। मेरे मन में उसकी जिंदगी को देखने की ललक जगी। तो मैंने शुरू कर दिया इसी पागल नाम के प्राणी को ध्यान से देखना।
वो औरत सुबह १० बजने के साथ ही अपना सफर शुरू कर देती है और करीब २ किलोमीटर लम्बी सड़क पार कर सड़क के इस किनारे पर पहुँच जाती। मैला कुचैला सलवार सूत, बारीक़ कटे हुए बाल, खाली हाथ कभी ख़ुद से नाराज़ तो कभी ख़ुद से ही खुशी.... मेरे जेहन में रह रहकर सवाल उठते थे की इसमे ऐसा क्या है जो इसे पागल कहा जाए? तभी मैंने देखा की सड़क पार करते हुए उसे अचानक सामने से आती हुई बस दिखती है। उसी के साथ एक और युवती भी रोड क्रॉस कर रही थी। अब जरा देखें वो युवती भागती हुए सड़क पार कर गई लेकिन वो पागल औरत ने बस के वह से निकलने का इंतज़ार किया और फ़िर वह से निकली।
एक दिन कुछ बच्चे उसके पास जाकर उससे हंसाने की कोशिश करते रहे लेकिन वो औरत ख़ुद ही वहाँ से दूर निकल गईमेरा चिंतन और गहरा रहा था की पागल है तो क्यों है? मुझे तो लगता है की वो तो हम सब से ज्यादा समझदार है, ज्यादा धैर्यवान है जो उसने इस दुनिया में अकेले रहना सीख लिया। उसने अकेले ख़ुद को संभालना भी सीख लिया। उसकी अपनी खुशी अपने गम हैं। बस वो उन्हें हमारे साथ बांटना नही चाहती।
एक हमारी वो जिंदगी है जहाँ एक घर के नीचे रहते हुए भी हम एक दुसरे के साथ हंसने बोलने का समय नही निकल पाते। खुशी की वजह मिलने पर भी खुलकर हंसने का समय नही और एक वो है जिसके पास कुछ भी नही फ़िर भी वो हंसती भी है रोटी भी है...
सवाल यहाँ ये भी हैं की उसके भी अपने नाते रिश्तेदार होंगे लेकिन अज उसे रोकने वाला कोई नही और अगर वो सच में पागल है तो उसके इलाज के लिए आगे आने वाला कोई नही।
समाज देखता है तो सिर्फ़ इतना की वो पागल है...ये क्यों नही देखता की वो पागल है या वो समाज भी पागल है जिसने उसे पागल की श्रेणी में पहुँचाया है...क्या उस जैसी तम्मा रूह सडको पर केवल इसलिए हँसी का पत्र बनती रहेंगी क्यूंकि वो पागल है......या उसमे कैद रूह को उसका जामी और आसमा भी मिलेगा.......

क्या लड़कियां वाकई भोली होती हैं....

कविलाश मिश्रा
बेटियों की बाबुल की गुडिया कहा जाता था। कोई उन्हें बाबुल की रानियाँ भी कहता है, मैं भी अभी कुछ समय पहले तक यही सोचता था। लेकिन इसे मेरा सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य की मैं ऐसे पेशे में हूँ जहाँ बहुत सारे भ्रम टूटते देर नही लगती मैं ये तो नही कहूँगा की मेरी बेटियों के बारें में चावी पुरी तरह से बदल चुकी है लेकिन काफी हद तक ये सोचने पर जरुर मजबूर कर दिया है की क्या लड़कियां वाकई इतनी भोली होती हैं जितना उन्हें समझा जाता है?
पिछले कुछ समय में मेरे सामने कुछ ऐसे मामले आए जिन्होंने मुझे आज की बेटी और उसकी बदलती सोच पर सोचने के लिया मजबूर कर दिया। अभी हाल ही में एक २१ साल की युवती अचानक अपने कार्यस्थल से गायब हो गई। माता- पिता की ये लाडली गुडिया उसके अभिभावकों ही नही बल्कि रिश्तेदारों और पडोसियों में भी काफी लाडली थी। ज़ाहिर है की उसके गायब होने ने पूरे परिवार को हिला कर रख दिया। पोलिस ने जब उस के चल चलन के बारे में पूछना चाह तो अभिभावक भड़क गए। उन्होंने पुलिस पर ही ठीक से जांच न करने का आरोप भी लगा दिया। पिता ने कहा मेरी बेटी बहुत सीधी और समझदार थी। लेकिन अगले ही दिन पुलिस ने उसे बरामद कर लिया। जांच में ये भी सामने आया की वो सीधी लड़की अपने एक अंतर्जतिये प्रेमी के साथ भागी थी औरअपने अपहरण का नाटक रचा था। मजिस्ट्रेट के सामने लड़की ने जो बयां दिया वो और भी चौकाने वाला था। लड़की ने साफ कर दिया की उसे कोई नशीला पदार्थ खिला कर उसका अपहरण किया था। लड़की की बात छोड़ दे तो बात अब उस लड़के की जिसको इस प्यार में मिली जेल की सलाखें।
कुछ ऐसा ही मामला एक बार पहले भी सामने आ चुका है। यहाँ भी एक प्रतिष्ठित परिवार की लड़की गायब होती है, लौटकर आती है और फ़िर कहती है की उसी के प्रेमी ने उसका अपहरण किया है। जिला जेल में ऐसे कई युवा प्यार की सज़ा भुगत रहे हैं जिनके अपने ही प्यार ने उन पर जबरन शादी से लेकर शारीरिक शोषण तक के आरोप लगाये। यहाँ सवाल ये है की क्या वाकई लड़कियां इतनी ही भोली होती हैं? आखिर वो ऐसा करके क्या साबित करना चाहती हैं? अगर उन्हें सच में प्यार है तो फ़िर पुलिस से पकड़े जाने पर वो मुकर क्यों जाती हैं और यदि परिवार के दवाब में ये कदम उठती हैं तो फ़िर पहले ये कदम उठाते हुए एक बार भी क्यों नही सोचती? ये वो लड़कियां जो किसी बड़ी कम्पनी में सेवारत हैं। क्या अपने ही माता पिया के विश्वास को धोखा देने वाली लड़किउँयां भोली हो सकती हैं या फ़िर ये मौका परस्त संस्कृति की शुरुआत है जो अपनी शर्त पर अपने फायदे के लिए जीने की चाह है जिसके आगे किसी की खुशी किसी के सम्मान की कोई कीमत नही रह जाती। आज ये यक्ष प्रश्न उस समाज के सामने भी है जो आधुनिकता और स्टेटस के नाम पर उस अंधी दौड़ में शामिल हो चुका है जहाँ माता पिता को भी अपने बच्चो के लिए टाइम नही है.....

Monday, March 31, 2008

ये जो है जिंदगी

ठहरी है जिंदगी
मगर मैं सफर में हूँ
यूं तो सारे हैं अपने
मगर न जाने किसकी
नज़र में हूँ
कहती रही है दुनिया
जिंदगी जिसे
में शायद उसी
ज़हर में हूँ
अंधेरे हैं चारो और मेरे
मगर कहने को में
सेहर में हूँ
अपनों के लिए अपनों को फुरसत नही
में ऐसे मतलबी शहर में हूँ
कदम कदम पर बस ठोकरें है, जहाँ
में ऐसी पथरीली डगर में हूँ
हर लम्हा बीत जाता है इसी उम्मीद में
शायद कल में भी किसी असर में हूँ ...
प्रतीक्षा सक्सेना

Friday, March 28, 2008

ये कैसी बराबरी!


प्रतीक्षा सक्सेना

अभी हाल ही में प्रदेश सरकार ने लड़कियों और लड़कों की बराबरी की मुहीम छेड़ दी है। राजधानी मे जेंडर सेंसितीसशन यानि लिंग सम्वेदिकरण की कार्यशाला भी लगा ली गई। वर्कशॉप में जिस बात पर जोर था उनमे से प्रमुख बात ये भी थी की किसी रोते हुए बच्चे को ये ना कहा जाए की क्या लड़कियों की तरह रो रहा है। या फ़िर परिवार में बेटा और बेटी दोनों हो तो केवल बेटी से अपेक्षा ना करें की वो ही पानी लाकर देगी। विषय क्यूंकि महिलाओं के हित के थे तो शायद मेरे अन्दर की लड़की भी जाग गई। शिक्षा विभाग के कर्णधारों से बहस भी छिड गई की वास्तव में बराबरी की परिभाषा हैं क्या ?

जो महिलावादी संगठनो की ओर से गढ़ी जा रही है वो वास्तव में बराबरी की वकालत है या फ़िर एक सामजिक ढाँचे को तोड़ने की तैयारी? बहस बढ़ी तो वहाँ मौजूद एक 'पुरूष' ने महिला हितों की दुहाई देते हुए कहा की बात तो सही है, आखिर रोने पर लड़कियों से तुलना करना तो लड़की का अपमान ही है और जो कवायद लड़की को समता का दर्जा दिलाने के लिए की जा रही है उसकी पहली सीधी भी

अब तक मैं फ़िर एक चिंतन में घिरती जा रही थी। सवाल मेरे सामने एक बार फ़िर से सर उठाने लगा था की दरअसल बुरा क्या है? 'रोना' या 'लड़की' ? कहीं रोना इसलिए ही तो बुरा नही माना जा रहा क्यूंकि लड़कियां आसानी से रो लेती हैं? यदि वास्तव में रोना ही बुरा है तो फ़िर इस 'तुलना' पर ऐतराज़ क्यों? ऐतराज़ तो रोने पर होना चाहिए...

फ़िर चाहे वो लड़का रोये या लड़की। कार्यशाला में इस बात पर ज़ोर क्यों नही दिया गया की लड़कियों को जागरूक किया जाए की वो रोना बंद करें। अगर vigyaanik रूप से देखा जाए तो रोना तो बहुत himmat का काम है, और वो भी किसी के सामने। शायद यही wajha है की mahilaon में sehanshakti भी पुरुषों के मुकाबले ज्यादा pai jati है। वो रो लेती हैं तो उनकी ego आगे नही आती। फ़िर ये रोना इतना बुरा क्यों है?

अब बात dusari बराबरी की। जहाँ बात pani लाने या न लाने की थी। तो यहाँ भी मैंने sawal यही किया की क्या घर के काम मई pehal करना इतना बुरा काम है या फ़िर उस काम को सिर्फ़ isiliye छोटा माना जा रहा है क्यूंकि उस काम को पिछले kafi साल से औरत ही करती आ रही है? क्या हर वो काम छोटा है जो औरत ने किया है? एक तरफ़ तो हम अपनी betiyon को majbut banne की बात kehte हैं और dusri ओर उन्हें उस jagaha dhakel रहे हैं jahan वो अपनी molik kshamtaaon से dur हो jaayen। ये कैसी बराबरी? क्या sikhaana चाहते हैं हम?

जोड़ने की जो kuwwat औरत में है क्या उसे khatm कर देना बराबरी है? sewa और sanskaar जो गुन हैं क्या unhe अपने चरित्र से nikaal fenkana बराबरी है? क्यों जब भी औरत के sashaktikaran की बात होती है तो उसकी buraiyon को dhunda jataa है? उसकी achchaiyon को किसी karyashalaa का hissa क्यों नही banaayaa jataa? उसके shant swabhaaw, vinarmtaa और sehyog जैसे shabdo पर कार्यशाला कभी किसी ladke की क्यों नही होती? लेकिन शायद mahilawad का sur alaapne वालों ने शायद उसकी khubiyon को ही उसकी कमजोरी saabit करना अपने abhiyaan की safaltaa समझ लिया है....आखिर कब तक?

काश मैं कुत्ता होता...


कविलाश मिश्रा

हाल ही में महानगर में एक सरकारी महकमे की तरफ़ से एक कुता प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। कुत्तों के बारें में मैं ख़ुद को अगर विशेषज्ञ नही मानता था तो उससे से कम भी नही समझता था। गाँव से लेकर शहर तक मेरा पाला कई बार कुत्तों से पड़ चुका था। लेकिन डौग शो में जाकर मैंने पाया की कुत्तों के बारें में मेरी जानकारी किसी नौसिखिये जैसी थी। आयोजन में जाकर मैंने जो देखा उसकी चर्चा तो मैं बाद में करूंगा लेकिन वहाँ पहुंचकर मुझे अपने साथ गुजरा एक वाकया याद आ गया जो मैं यहाँ भी बांटना चाहूंगा

कई साल पहले मेरे एक मित्र मेरा कुत्ता प्रेम देखकर मुझे कुत्ता खरीदवाने ले गया। एक डोबर्मन मुझे पसंद आया लेकिन मैंने उसे इसलिए नही ख़रीदा क्यूंकि उसकी कीमत पाँच हज़ार रूपैये थी। लेकिन मैं पसंद आने पर भी एक अन्य पामेरियन भी इसलिए ही नही खरीद पाया क्यूंकि उसकी कीमत भी चार हज़ार रूपैये थी। मन मारकर मैं लौट आया। मेरे दोस्त ने मुझ पर लानत मारी। शौक कुत्ते के और खर्च से डर, भला कैसे संभव है? वक्त बीता। बच्चे बड़े हुए तो घर में कुत्तों की जगह टेडी की शक्ल में कुत्ते और रीछ आने लगे। एक दिन मेरी बिटिया ने अपनी सहेली के बर्थ डे पर टेडी बियर या टेडी कुत्ता देने की फरमाइश कर डाली। मैं उसे एक गिफ्ट शॉप पर ले गया। वहाँ एक से एक खूबसूरत टेडी बियर और टेडी दोगdइस्प्लय थे। आदम कद के कुत्ते और टेडी पलंग पर आराम फरमा रहे थे।

मैंने मुर्दा कुत्ते की कीमत जाननी शुरू करी। सबसे छोटा कुत्ता ३०० रूपैये का और सबसे बड़ा १५००० रूपैये का। मैं फ़िर हैरान था। मैंने दूकानदार से आख़िर पूछ ही लिया की इतने महंगे टेडी बिकते भी हैं या फ़िर सिर्फ़ दिखाने को रखे हैं? दूकानदार ने मुझे हिकारत की नज़र से देखा और कहा की सामने जो टेडी लगा है उसकी कीमत २१००० रूपैये है। वह अडवांस में ही बिक चुका है। मैंने फ़िर पूछ ही लिया की भइया या किस काम आते होंगे? दुकानदार ने आश्चर्य से एक बार फ़िर मेरी औरदेखा और बोला की साहब आप भी कैसी बात करते हैं, अरे भाई बड़े घरों की लड़किया बिस्तर पर इन्हे साथ लेकर सोती हैं।

इस संवाद के बाद मैं ख़ुद को कोसता हुआ दूकान से बाहर निकला और सोचने लगा की मेरा ज्ञान भी कितना बौना हैजो कुत्तों के बारें में कुछ जानता ही नही ह। एक ओर जहाँ बेजान कुत्ते २० हज़ार से ऊपर की कीमत में बिक रहे हैं वहा मुझे २००० का कुत्ता भी महंगा लग रहा था।

बहरहाल अब बात कुत्ता प्रदर्शनी की। शो में भाँती-भाँती के कुत्ते आए हुए थे। मैंने भी काफी कुत्तों की नसल जानने की कोशिश की। अधिकांश नसल ऐसी थी जिनके बारें में मैंने पहले कभी नही सूना था। उनके मालिकों ने उन्हें ऐसे सजाया था की हर कुत्ता लाजवाब लग रहा था। कुत्ता औरमालिक एक दुसरे के साथ इतनी शान से चल रहे थे की ये अंदाजा ही नही लगाया जा सकता था की कौन किसे घुमा रहा हैमुझे भी लगा की मैं भी एक कुत्ता पालकर अभिजात्या वर्ग में शामिल हो जाऊँ। मैं देख ही रहा था की आज मकान और गाड़ी के साथ कुत्ता रखना भी स्तेतुस स्य्म्बोल बनता जा रहा है तो फ़िर मैं भी ऐसा ही क्यों ना करू। मुझे छोटा सा पमेरियन नसल का कुत्ता भा गया। मैंने उसके मालिक से कुत्ते की कीमत पूछ ली। उस आदमी ने उस की कीमत ५५ से ६० हज़ार रूपैये बताई। मैंने आश्चर्या का भाव जताया ही था की तभी वहाँ मेरे एक मित्र ने आकर कहा की यहाँ क्या देख रहे हो, वहाँ देखो ५ लाख का कुत्ता भी बैठा है। अब तो मैं उस रहीस कुत्ते के दर्शनों के लिए बेकरार हो चुका था। मैंने उसके मालिक सा बात करनी शुरू की तो उसने लाचारगी जताते हुए कहा की भाई साहब मेरी तो किस्मत ख़राब है। अभी हाल ही में एक २० लाख का कुत्ता मार्केट में बिकने के लिए आया था लेक्नी जब तक मैं उसे खरीद पाटाटैब तक मेरे एक प्रतिदुंदी ने खरीद लिया। मैंने उस कुत्ते को देखने की इच्छा जाहिर की तो उसने मुझे एक आदमी के साथ उसके दर्शन के लिए भेज दिया। अब तक इस कुत्ते की कीमत ४० लाख पहुँच चुकी थी। उसकी लगाम थामे व्यक्ति से मेरा परिचय हुआ। मैंने उस व्यक्ति को इस शाही कुत्ते का मालिक होने पर बधाई भी दी। उन्होंने मुझे बताया की असली कुत्ते तो मैं यहाँ लेकर ही नही आया हूँ। दरअसल यहाँ गर्मी काफी हैं ना और वो बेचारा एडजस्ट नही कर पता। वैसी भी ऐसे शो तो उसके लिए छोटे मोटे इवेंट्स हैं। ऐसे अवार्ड्स तो वो जीतता ही रहता है।

बातचीत के बीच एक सिक्यूरिटी गार्ड ने उसके हाथ में एक पैकेट लाकर दिया। मेरी उत्सुकता अब उस पैकेट के प्रति थी। पूछने पर पता चला की ये कुत्ते का भोजन था। एक प्लेट में पैकेट सी सामग्री निकाली जा रही थी। मैंने ऐसी सामग्री पहले कभी नही देखथी। मालूम करने पर पता चला की एक पैकेट की कीमत १००० रूपैये है। यह कुत्तों की इम्पोर्टेड डाइट थी। और उनका प्यारा सा आची सा पूछी सा प्लूटो एक दिन में इसके दो पैकेट उड़ा देता है। ये वह भोजन है जो ये कुत्ते दिनभर में दूध अंडे और डबल रोटी से अलग गटक जाते हैं। अब सोचने की बारी मेरी थी की आख़िर मैं कुत्ता क्यों नही हुआ......??

Thursday, March 20, 2008

बर्बाद गुलिस्ता करने को .....

इष्ट देव सांकृत्यायन
टी वी वाली ममता जी ने आज अपने ब्लाग पर एक मौजू सवाल उठाया है. वह यह कि क्या वाकई उल्लू के साथ-साथ लक्ष्मी जी आती है? क्या सचमुच जहा उल्लू होते है, वहा लक्ष्मी जी भी होती है? पहली नजर मे अगर अपने अनुभवो के आधार पर अगर बात की जाए तो उनके इस सवाल का जवाब सकारात्मक ही होता है. क्योंकि जहा तक नजर जाती है दिखाई तो यही देता है कि धनवान होने के लिए पढे-लिखे होने की जरूरत नही होती है. इसका पहला उदाहरण तो यह है कि सारे पढने-लिखने वाले लोगो का इरादा कम से कम भारत मे तो एक ही होता है और वह अच्छी से अच्छी नौकरी हासिल करना. यानी नौकर बनना. इसी सिलसिले मे एक शेर भी है : बी ए किया नौकर हुए और मर गए ....
सुनते है कि हिन्दुस्तान मे कभी ऐसा भी समय था जब पढने-लिखने का अंतिम उद्देश्य नौकरी करना नही होता था. तब शायद नौकरी के लिए पढाई जरूरी नही थी. लेकिन जब से हम देख रहे है तब से तो नौकरी के लिए पढाई जरूरी नही, अनिवार्य है. बल्कि पढाई का एक ही उद्देश्य रह गया है और वह है नौकरी करना. जितनी अच्छी पढाई उतनी अच्छी नौकरी. पर अब तो यह भी जरूरी नही रह गया है. बहुत ज्यादा और अच्छी पढाई करके भी मामूली नौकरी से गुजारा करना पड सकता है और मामूली पढाई से भी बहुत अच्छी नौकरी हासिल हो सकती है. यह भी हो सकता है कि मामूली पढाई से आप नौकर रखने की हैसियत बना ले.
वैसे पढाई हमेशा नौकरी करने के लिए ही जरूरी रही है. नौकर रखने यानी मालिक बनने के लिए पढाई कभी जरूरी नही रही है. आज भी देखिए, हमारे देश मे नीतियो का अनुपालन करने यानी चपरासी से अफसर बनने तक के लिए तो योग्यता निर्धारित है, लेकिन नीति नियंता बनने के लिए कोई खास योग्यता जरूरी नही है. यह बात भारतीय गणतंत्र के उच्चतम पदो पर सुशोभित होकर कुछ लोग साबित कर चुके है. यह बात केवल भारत मे हो, ऐसा भी नही है. दुनिया भर के कई देशो मे उच्चतम पदो पर सुशोभित लोग अपनी नीतियो से दुनिया को जिस ओर ले जा रहे है उससे तो यही लगता है कि हर शाख पे ...........
ये फिराक साहब भी कुछ अजीब ही शै थे. ये ठीक है कि हर शाख पे उल्लू बैठा है, पर इससे ये कहा साबित होता है कि ये दुनिया का चमन है वो कही बर्बादी की दिशा मे बढ रहा है. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि या तो फिराक साहब किसी और गुलिस्ता की बात कर रहे थे या फिर उल्लू से खार खाए बैठे थे या फिर उनके नजरिये मे ही कुछ गड्बडी थी. वरना तो गुलिस्ता की बर्बादी के लिए उल्लू को जिम्मेदार ठहराने का कोई तुक ही नही बनता है. उनके पहले परसाई भी उल्लू लोगो के बारे मे ऐसे ही काफी कुछ अनाप-शनाप कह गए है.
मुझे लगता है कि ये सारे वक्तव्य कुंठा मे दिए गए वक्तव्य है. कायदे इन रचनाकारो को उल्लू जी लोगो की आव-भगत करनी चाहिए थी. जैसे गधे को बाप बोलते है वैसे ही इन्हे भी कम से कम चाचा तो बोलना ही चाहिए. हालांकि बाद की पीढी के कुछ साहित्यकारो ने यह भी किया. वे आज तक ऐसा कर रहे है और इसका भरपूर लाभ भी उठा रहे है. अकादमियो और पीठो से लेकर कई-कई समितियो तक इनके दर्शन किए जा सकते है. आखिर लक्ष्मी मैया ने इन्हे अपना रथ और सारथी दोनो एक साथ ऐसे ही थोडे बना लिया होगा. हम यह क्यो भूल जाते है कि अन्धेरे मे देखने की कूवत तो सिर्फ और सिर्फ उल्लू जी लोगो के पास ही होती है.

Wednesday, March 19, 2008

हॉकी का खेल और स्टिक प्रेम

इष्ट देव सांकृत्यायन

हाकी के खेल से मुझे बहुत प्यार है. करीब-करीब उतना ही जितना गिल साहब को या शाहरुख खान को. यह दावा तो मै नही कर सकता कि तभी से जब से इन दोनो स्टारो को है, पर इतना तो मै दावे के साथ कह ही सकता हू मुझे भी हाकी के उसी तत्व से प्रेम है, जिससे इन दोनो महानुभावो का है. हाकी के प्रति सम्वेदनशील हर व्यक्ति का प्रेम सही पूछिए तो हाकी के उसी तत्व से है. यह तत्व है हाकी स्टिक.
जी हा! यकीन मानिए, हाकी के खेल से जुडे मूढ्मति लोगो ने इस तत्व की बडी उपेक्षा की है. यह बात केवल हिन्दुस्तानी हाकी चिंतको के साथ हो, ऐसा भी नही है. अव्वल तो उपेक्षा का यह आरोप दुनिया भर के हाकीवादियो पर वैसे ही यूनिफार्मली सही है जैसे दुनिया भर के राजनेताओ पर चरित्रवान होने की बात. क्रिकेट के लोगो ने इस बात को समझा और नतीजा सबके सामने है. उन्होने बाल से ज्यादा बैट पर ध्यान दिया. उनकी यह रीति हमेशा से चली आ रही है. आज भारत और पाकिस्तान से लेकर आस्ट्रेलिया तक क्रिकेट रनो और ओवरो के लिए उतना नही जाना जाता जितना विवादो के लिए. वैसे भी खेल के लिए कोई कितने दिनो के लिए जाना जा सकता है? ज्यादा से ज्यादा उतने दिन जब तक खेल चले. इसके बाद? कोई जिक्र तक नही करता.
तो साल भर चर्चा मे बने रहने के लिए तो कोई न कोई एक्स्ट्रा एफर्ट चाहिए न! यह एक्स्ट्रा एफर्ट आखिर कैसे किया जाए? अब या तो सिनेमा की तरह पूरे साल कुछ न कुछ प्यार-व्यार के झूठे किस्से ही चलाए जाए या फिर विवाद गरमाए जाए. हाकी वालो के प्यार-व्यार के किस्से को कोई बहुत तर्जीह इस्लिए नही देगा क्योंकि इनकी भरती सिनेमा वालो की तरह रंग-रूप के आधार पर होती नही. जाहिर है, इनको सुन्दरता के आधार पर प्यार वाला ग्रेस मिलने से रहा. मिलना होता तो लालू जी ने पी टी उषा के बजाय बिहार की सड्को को हेमामालिनी के गाल जैसे बनाने की बात नही की होती. तो जाहिर है कि हाकी को चर्चा विवादो से ही मिलनी है और विवाद पैदा होते है डंडे से. डंडा यानी स्टिक.
दरसल हाकी से मेरा पहला परिचय भी इसी रूप मे हुआ था. हुआ यह कि स्कूल के दिनो मे कुछ मित्रो से विवाद हुआ. उन दिनो स्कूलो मे कट्टा आदि कोर्स मे शामिल नही थे. पर हाकी थी. लिहाजा अपने बचाव के लिए मै हाकी लेकर गया और फिर मुझे रन बनाना नही पडा. मैने अपने प्रतिस्पर्धी गुट से कई रन बनवाए.निश्चित रूप से गिल साहब का परिचय भी हाकी से इसी तरह हुआ होगा. इसका सफल प्रयोग उन्होने पंजाब मे किया. इस सम्बन्ध मे किसी से कोई प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नही है.
स्टिक यानी डंडे का एक मतलब लाठी भी होता है. लाठी हमारी संस्क्रिति का उतना ही अभिन्न अंग है जितना कि भ्रष्टाचार. बालको का उपनयन यानी जनेऊ होता है तो तमाम संस्कारो के बाद उन्हे दंड यानी लाठी ही थमाई जाती है. वे लाठी लेकर विद्या ग्रहण करने निकलते है. विद्यालय मे गुरुजन भी लाठी रखते है. सरकार मे पुलिस से लेकर बाबू और अफसर तक सभी किसी न किसी तरह की लाठी जरूर रखते है. उसी लाठी से वे हमेशा यह साबित करते रहते है कि भैंस उनकी है. इसीलिए जिसकी लाठी उसकी भैंस हमारे देश का सर्वमन्य सिद्धांत और कानून है.
गिल साहब इसका प्रयोग हर तरह से कर चुके है। पंजाब मे उन्होने लाठी के ही दम पर साबित किय था कि यह हमारा है. लाठी से ही उन्होने पंजाब से आतंकवाद खत्म किया था. गिल साहब दो ही बातो के लिए तो जाने जाते है. एक लाठी चलाने और दूसरा खत्म करने के लिए. जिस दिन उन्हे भारतीय हाकी संघ का सरपरस्त बनाया गया, अपन तो उसी दिन आश्वस्त हो गए थे. हाकी के भविष्य की चिंता हमने उसी दिन से छोड दी. इस्के बाद अगर किसी ने चिंता जारी रखी तो उसे हमने वही समझा जो हमारे भारत के नेता लोग जनता को समझते है. मै गिल साहब की प्रतिभा को जानता हू, पर क्या बताऊ मेरे हाथ मे कोई जोरदार लाठी नही है. वरना मै गिल साहब को भारतीय राजनीति का सरपरस्त बनाता. आप अन्दाजा लगा सकते है कि फिर क्या होता!

Thursday, March 13, 2008

बेचारा सेंसेक्स और चार्वाक

इष्ट देव सांकृत्यायन
बेचारा सेंसेक्स! जब देखिए तब औंधे मुंह गिर जाता है. एक बार बढ़ना शुरू हुआ था पिछले साल. ऐसा दौडा, ऐसा दौडा... कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. उस वक्त तो ब्लू लाइन और डीटीसी की बसें भी फेल हो गईं थीं इसके आगे. लग रहा था जैसे ब्रेक ही फेल हो गया हो. कोई रोकना चाहेगा भी तो शायद न रुके. यह जानते हुए भी कि ब्रेक फेल हो जाने के बाद किसी गाडी का क्या हाल होता है हमारे जैसे तमाम नौसिखिये बाबू लोग भी पहले निवेशक बने, फ़िर मौका ताक कर ट्रेडरगिरी की ओर सरकने लगे थे. तब तक तो अईसा झटका लगा जिया में कि पुनर्जन्मे होई गवा.
जब यहाँ सेंसेक्स बढ़ रहा था, तब दुनिया भर का बाजार गिर रहा था. अमेरिका से लेकर चीन तक सब परेशान थे. तब इहाँ के एक्सपर्ट लोग इसके गिरने का कौनो अंदाजा नहीं लगा रहे थे. सबको यही लग रहा था कि बस बढ़ रहा है और बढ़ता ही जाएगा. चढ़ रहा है और चढ़ता ही जाएगा। 16 हजार था, 18 हजार हुआ, फ़िर 20 हजार हुआ, फ़िर 22 हजार हुआ. भाई लोगों को लगा कि अब ई का रुकेगा. अब तो बस बढ़ता ही चला जाएगा. 24 हजार होगा, फ़िर 26 हजार होगा. चढ़ता ही जाएगा सर एडमंड हिलेरी की तरह. एकदम एवारेस्ते पे जा के दम लेगा. अपने अगदम-बगादम वाले आलोक पुराणिक भी लगातार यही बताते रहे कि हे वाले फंड में लगाइए, हीई वाली इक्विटी में लगाइये. ई इतना बढ़ा है तो इतना बढेगा. ऊ इतना बढ़ा है तो इतना बढेगा. एक्को बार ई नहीं बताए कि गिरेगा तो का होगा. आपका हाथ-गोद कुछ बचेगा कि नहीं.सारे लोग यही बोल रहे थे भारत का बाजार बाहर के बाजार से बिल्कुल नहीं इफेक्तेद है. ई हमारी अर्थव्यवस्था के प्रगतिशील होने का संकेत है. आख़िर प्रगतिशील गठबंधन के नेतृत्व में देश चल रहा है. कोई ऎसी-वैसी बात थोड़े है!
लेकिन साब एक दिन ऐसा भी आया जब ऊ अचानक गिरने लगा. यह काम उसने बिन बताए किया. चुपचाप. जैसे पुराने जमाने में लड़की-लड़का मान-बाप की इच्छा के खिलाफ होने पर घर से भाग के शादी कर लेते थे. जब एक्के दिन में गिर के ऊ बीस हजार पे आ गया, तब लोगों को लगा कि अरे ई का हो गया ? कहाँ तो हम सोचे थे तीस हजारी होने को और कहाँ ......... खैर! तब भी कुछ लोग घबराए नहीं. मान के चल रहे थे कि सुधर जाएगा. कुछ मजे खिलाडी भी लोग तो उस दौर में खरीदी में जुट गए. सोचे सस्ता माल है, खरीद लो जितना ख़रीदते बने. लगे गाने ऐसा मौका फ़िर कहाँ मिलेगा .........
लेकिन सचमुच ऊ बहुत बढ़िया मौका साबित हुआ. ऐसा कि जैसे चाईनीज माल की दुकानें होती हैं. लगातार सेल, महासेल. पहले कहती हैं ऑफर स्टाक रहने तक. लेकिन उनका स्टाक कभी ख़त्म नहीं होता. बढ़ता ही चला जाता है. तो साहब यह भी सेल का महासेल लगा के बैठ गए. तमाम शेयरों का दाम तो लगातार गिरता ही चला गया. ऐसे जैसे इमरजेंसी के बाद भारतीय राजनेताओं का चरित्र गिरता चला गया. अब राजनेताओं और विश्लेषकों को ये नहीं सूझ रहा है कि क्या जवाब दें? असलियत बता दें कि ऐसे-वैसे कुछ कह दें. कुछ नहीं सूझा तो बेचारे यही कहे जा रहे हैं कि- हे जी जब पूरी दुनिया में गिर रहा है तो एक ठु हमारे कैसे बचेगा? ई गलोबल असर है जी!
सलाहू बोल रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि निवेशक सब सरकार पर दबाव बनाने लगे. फ़िर ऊ निवेशकों को भी सब्सीडी देने लगे. आख़िर अईएमेफ़ की मनाही तो किसानों को सब्सीडी देने पर है न! शेयर बाजार के लिए थोड़े ही है. यह भी हो सकता है कि जिन लोगों ने कर्ज लेकर निवेश किया है उनके कर्जे पूरे माफ़ कर दिए जाएँ. उप्पर से सरकार कहे कि लो हम और कर्ज दिए देते हैं तुमको. बाद में इहो माफ़ कर देंगे. ई अलग बात है इसको माफ़ करने की नौबत तब आएगी, जब तुम अगले पाँच साल बाद महंगाई की मार झेलने के बाद भी बच सकोगे.
मुझे भी लग रहा है कि सरकार जल्दी ही ऐसा कुछ करेगी. क्योंकि चुनाव का समय नजदीक है और ऐसे समय में कौनो सरकार किसी को नाराज नहीं रख सकती. मैं भी सोच रहा हूँ, ले लिया जाए. वैसे भी लोकतंत्र का उद्गम तो वहीं है .... यावाज्जीवेत सुखाज्जीवेत ....

Monday, February 18, 2008

astitva

astitva

मारा मारी मची हुयी है

केवल एक अस्तित्व की

हर तरफ़ हो रही है लड़ाई

केवाल एक अस्तित्व की

लादेन मुशर्रफ जॉर्ज बुश

सबकी है अस्तित्व की लड़ाई

अपना अस्तित्व बनाने को ही

दुसरे की पहचान मिटाई

ग्यारेह सितम्बर को अमरीका की

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर गिराई

विश्व माफिया के अस्तित्व को

मिटाने की ही टू थी कार्रवाई

अपने अस्तित्व का एहसास कराया

जब अफगान पर मिसैएल गिराई

दो अस्तित्व के तकराओ में

हाय निर्दोषों ने जान गंवाई

मिट ना सका है फ़िर भी

अस्तित्व अब तक क्यों बुराई का

कद गिरता ही जाता है क्यों

दिनोदिन भलाई का

ज़ोर जबरदस्ती से जो पाया

क्या वोही अस्तित्व है

चिंतन इसका कर जो सके

क्या ऐसा कोई व्यक्तित्व है

अस्तित्व धूँधना है तोह धूँधो

प्रेम सौहार्द और प्यार का

अस्तित्व छीन ना है तू छीनो

अपने क्रोध और अहेंकार का

है द्रर्ध विश्वास ये मेरा

दिन ऐसा भी आयेगा

मिट न सकेगा अस्तित्व भले का

अस्तित्व बुरों का मिट जायेगा

इस कारण छोडो ये भ्रम

अस्तित्व अपना जमाने का

अस्तित्व रहा है बस उसका

जो हो गया ज़माने का

देखो तू यह दुनिया भी

स्वयं एक अस्तित्व है

लहराता है जो सागर

सरिता का अस्तित्व है

प्रतीक्षा सक्सेना

Friday, February 15, 2008

आखिर कौन हूँ मैं

आखिर कौन हूँ मैं.....
अस्तित्व को तलाशता
एक नारीत्व
या नारीत्व में खोया
एक अस्तित्व
आखिर कौन हूँ मैं.....
दुनिया की भीड़ में
रौंदा गया एक व्यक्तित्व
या तिनको में समाया
एक अस्तित्व
आखिर कौन हूँ मैं....
हर कदम हर डगर
गिर के सँभालने का सफर
आँधियों के बीच
ज़र्रों से बना एक घर
आखिर कौन हूँ मैं...
सुकून की चाह में
खुशियों की रह में
लड़ रही जिंदगी का समर
आखिर कौन हूँ मैं.....
हौंसलों की पतवार से
पार कर पाऊँगी क्या
तूफानों का ये सफर
आखिर कौन हूँ मैं...
प्रतीक्षा सक्सेना

Monday, February 4, 2008

बचपन में ही तय हो जाता है मनो-व्यक्तित्व

प्रतीक्षा सक्सेना
इन् दिनों मानसिक तनाव कि बातें सबसे आम चर्चा बन चुकी हैं। लोग अक्सर कहते हैं कि रोज़मर्रा कि परेशानियाँ ही उन्हें तनाव दे रही हैं, लेकिन वास्तव मैं ऐसा नही है। मनोवाज्ञानिक नज़रिये से देखें तो तनाव किसी पर्यावरण पर उतना निर्भर नही करता जितना कि उस व्यक्तिविशेष पर जो किसी भी कारन से तनाव में है। विशेषज्ञ मानते हैं कि किसी भी पेर्सोनालिटी का निर्धारण तो उसके बचपन मई ही हो जाता है। ऐसे में यदि बचपन से ही ध्यान दिया जाये तो उस बच्चे को काफी हद तक स्ट्रेस से निकाला जा सकता हैं
दरअसल परेशानियाँ तो सभी कि जिंदगी में आती हैं लेकिन कई लोग ऐसे भी होते हैं जो बड़ी से बड़ी मुश्किल में भी अपने चेहरे पर शिकन नही आने देते वही कोई इंसान ऐसा होता है जो ज़रा सी मुसिबात में ही जिंदगी से पलायन के बारें में सोचने लगते हैं। ऐसे ही लोग एक दिन या तो सुसाईड का रास्ता पकड़ लेते हैं या हर समय अपनी ही परेशानियों का रोना रोते हैं। ऐसे में यदि बचपन में थोडा बहुत ध्यान परवरिश पर दे दिया जाये तो एक ऐसे शख्सियत तैयार हो सकती है जो न सिर्फ बुढापे में आपका सहारा बन सकेगा बल्कि अपने आसपास के लोगो को भी प्रेरणा दे सकता है।
एक नज़र में जानते हैं ऐसे ही कुछ बचपन जो बता सकता है कि आपका नन्हा मुन्ना आगे चलकर किस तरह कि शख्सियत बनेगा:
ऐसा बच्चा जो बहुत शांत स्वभाव का है लेकिन थोडी देर के लिए भी अपनी माँ से अलग होते ही रोना शुरू कर देता है
इस तरह के बच्चे आगे चलकर उतावले किस्म के हो जाते हैं और जीवन में ज़रा सा भी बदलाव बर्दाश्त नही कर पते। ऐसे बच्चों में अपनी चीजों को लेकर कुछ ज्यादा ही आसक्ति हो सकती है जो कई बार परेशानी का सबब भी बन जाती hai
ऐसा बच्चा जो अपने आप मई मस्त रहता है और अकेला ही खेलता रहता है
इस तरह के बच्चे आगे चलकर भी मस्त मौला तरह के होते हैं और मुश्किल वक़्त में जुझारू प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। ऐसे पेर्सोनालिटी एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में उभर सकती है।
ऐसा बच्चा जो काफी चिर्चिदा हो और अलग थलग ही रहता हो
इस तरह के बच्चे अंतर्मुखी स्वभाब के होते हैं। मसलन वो आसानी से किसी से घुलते मिलते नही है। उनके इसी स्वभाव के कारन ही उन्हें कई बार अकेलापन इस कदर महसूस होने लगता है कि वह जिंदगी से ही दूर भागने लगते हैं।

kya

Tuesday, January 29, 2008

दिव्यदृष्टि का बेजा इस्तेमाल

इष्ट देव सांकृत्यायन
अभी हाल ही में मैने एक कविता पढी है. चूंकि कविता मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैने उस पर टिप्पणी भी की है। कवि ने कहा है कि उनका मन एक शाश्वत टाईप का नाला है. उससे लगातार सड़ांध आती है. हालांकि उस मन यानी नाले का कोई ओर-छोर नहीं है. उसका छोर क्या है यह तो मुझे भी नहीं दिखा, लेकिन ओर क्या है वह मुझे तुरंत दिख गया. असल में मैं कलियुग का संजय हूँ न, तो मेरे पास एक दिव्यदृष्टि है. अपने कुछ सुपरहिट टाइप भाई बंधुओं की तरह चूंकि मुझे उस दिव्यदृष्टि का असली सदुपयोग करना नहीं आता, इसलिए मैं उसका इसी तरह से फालतू इस्तेमाल करता रहता हूँ. लोग मेरी बेवकूफी को बेवकूफी के बजाय महानता समझें, इसके लिए अपनी उस दृष्टि के फालतू उपयोग के अलावा कुछ और फालतू काम करके मैं यह साबित करने की कोशिश भी करता रहता हूँ मैं उनके जैसा नहीं हूँ. उनसे अलग हूँ.ये अलग बात है कि कई बार तो मुझे खुद अपनी इस बेवकूफी पर हँसी आती है. अरे भाई दुनिया जानती है कि बेवकूफ समझदारों से अलग होते हैं. इसमें बताने और साबित करने की क्या बात है? हाथ कंगन को आरसी क्या, पढे-लिखे को फारसी क्या? साबित तो हमेशा उलटी बातें होती हैं. और हों भी क्यों न! जो लोग देश-विदेश के बडे-बडे सौदों में दलाली के सबूत जेब में लेकर घूमते हैं मुकदमे की सुनवाई के लिए जब वही कचहरी पहुँचते हैं तो उनकी जेब ही कट जाती है. अब बताइए ऎसी स्थिति में दलाली ही क्यों, क़त्ल का भी जुर्म भला कैसे साबित होगा? वैसे भी जल्दी ही दो अक्टूबर आने वाला है और बापू ने कहा है कि घृणा पाप से करो, पापी से नहीं. अब बताइए, जब बापू की बात पूरी दुनिया मानती है तो हम कैसे न मानें?
इसीलिए हम कमीशन खाने या क़त्ल करने वालों को सजा नहीं देते. उन्हें मंत्री बनाते हैं. दे देते हैं उन्हें पूरा मौका कि खा लो और जितना चाहो कमीशन. आखिर कब तक नहीं भरेगा तुम्हारा पेट? कर लो और जितने चाहो क़त्ल या अपहरण, एक दिन तुम भी अंगुलिमाल की तरह बदल जाओगे. ये अलग बात है कि उनके आज तक बदलने की बात कौन कहे, वे अपने परम्परागत संस्कारों को ही और ज्यादा पुख्ता करते चले गए हैं. फिर भी हम हिम्मत नहीं हारे हैं और न ऊबे ही हैं. इसकी प्रेरणा भी हमें अपनी परम्परा से ही मिली है. बापू से भी पहले से हमारे पूर्वज 'दीर्घसूत्री होने' यानी लंबी रेस के घोड़े बनने पर जोर देते आए हैं.इसीलिए देखिए, अपनी आजादी के सठिया जाने के बाद भी हम धैर्यपूर्वक देख रहे हैं और बार-बार उन्हें सत्ता में बने रहने का मौका देते जा रहे हैं.लेकिन उस कविता पर टिप्पणी करते हुए मुझसे एक गलती हो गई. अखबार की नौकरी और वह भी लंबे समय तक पहले पन्ने की तारबाबूगिरी करने का नतीजा यह हुआ है कि मेरा पूरा व्यक्तित्व ही अख्बरिया गया है. थोडा जल्दबाजी का शिकार हो गया हूँ. तो टिप्पणी करने में भी जल्दबाजी कर दी. ज्यादा सोचा नहीं. बस तुरंत जो दिखा वही लिख दिया. महाभारत के संजय की तरह. नए दौर के अपने दूरंदेश साथियों की तरह उसका फालो अप पहले से सोच कर नहीं रखा. बता दिया कि भाई आपके ऐसे बस्सैने मन का अंत चाहे जहाँ हो, पर उसकी आदि भारत की संसद है.बस इसी बात पर रात मुझे बापू यानी गान्ही बाबा ने घेर लिया. पहले तो अपने उपदेशों की लंबी सी झाड़ पिलाई. मैं तो डर ही गया कि कहीँ यह सत्याग्रह या आमरण अनशन ही न करने लगें. पर उन्होने ऐसा कुछ किया नहीं. जैसे पुलिस वाले किसी निरीह प्राणी को भरपूर पीट लेने के बाद उससे पूछते हैं कि बोल तुमने चोरी की थी न? अब बेचारा मरे, क्या न करे? या तो बेचारा पिटे या फिर बिन किए कबूल ले कि हाँ मैने चोरी की थी.बहरहाल, बापू ने मुझसे सवाल किया कि बेटा तुमने संसद ही क्यों लिखा? मुझे तुरंत युधिष्ठिर याद आए, जिन्हे मैने द्वापर में यक्ष के पांच सवाल झेलते देखा था। मुझे लगा कि कहीँ मुझे भी बापू के पांच सवाल न झेलने पड़ें. बल्कि एक बार को तो मुझे लगा कि कहीँ यही द्वापर में यक्ष का रूप लेकर तो नहीं बैठ गए थे. लेकिन जल्दी ही इस शंका का समाधान हो गया. मैने अपने ध्यान की धारा थोड़ी गहरी की तो यक्ष की जगह मुझे राम जेठमलानी बैठे दिखे और बापू ने डांटा भी, 'तुमने सोच कैसे लिया कि ऐसे फालतू के सवाल मैं कर सकता हूँ?'
आख़िरकार मैंने थोड़ी हिम्मत बाँधी और डरते-डरते जवाब दिया, 'बापू क्या बताऊँ। असल में मुझे सारी गंदगी वहीं से निकलती दिखाई देती है. सो लिख दिया. अगर ग़लती हो गई हो तो कृपया माफ़ करें.' 'अरे माफ कैसे कर दूं?' बापू गरजे. जैसे रामायण सीरियल में अरविंद त्रिवेदी गरजा करते थे. 'तुम कभी तहसील के दफ्तर में गए हो?' मैं कहता क्या! बस हाँ में मुंडी हिला दी. बापू तरेरे, 'क्या देखा वहाँ मूर्ख? घुरहू की जमीन निरहू बेच देते हैं और वह भी बीस साल पहले मर चुके मोलहू के नाम. सौ रुपये दिए बग़ैर तुमको अपनी ही जमीन का इंतखाप नहीं मिल सकता और हजार रुपये खर्च कर दो तो सरकार की जमीन तुम्हारे नाम. बताओ इससे ज्यादा गंदगी कहाँ हो सकती है?' मैं क्या करता! फिर से आत्मसमर्पण कर दिया. बापू बोले, 'चल मैं बताता हूँ. कभी अस्पताल गया है?'इस सवाल का जवाब सोचते ही मैं सिर से पैर तक काँप उठा। में फिर अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा था. सफ़ेद कोट पहने और गले में स्टेथस्कोप लटकाए कुछ गिद्ध एक मर चुके मनुष्य के जिंदा परिजनों को नोच रहे थे. मैं जुगुप्सा और भय से काँपता बापू के पैरों पर पड़ता इससे पहले ही बापू ने लगाई मुझे एक लाठी. बोले, 'चल अभी मैं तुझे मैं तुझे नए जमाने के शिक्षा मंदिर दिखाता हूँ.' मैंने आंख बंद की तो सामने एक चमाचम इंटरनेशनल स्कूल था और दूसरी तरफ एक टुटही इन्वर्सिटी. स्कूल में सुन्दर-सुन्दर कपडे पहने मोटे-मोटे जोंक प्लास्टिक के गुद्दों जैसे सुन्दर-सुन्दर बच्चों के हांफते-कांपते अभिभावकों के शरीर पर लिपटे पडे थे. जोंक अंगरेजी झाड़ रहे थे और अभिभावक बेचारे भीतर ही भीतर कराहते हुए उज्बकों की तरह यस् सिर यस् मैम किए जा रहे थे. उधर इन्वर्सिटी में एक वीसी नाम के प्राणी एक हाथ से नेताजी के चरण चंपने और दूसरे हाथ से विद्यार्थियों और सेवार्थियों से नोट बटोरने में लगे थे. वहीं कुछ आज्ञाकारी विद्यार्थी नेता एक निरीह टाइप प्रोफेसर, जो केवल अपना विषय पढ़ाना ही जानता था, उसे ठोंकने में लगे थे. इसके आगे मुझसे देखा नहीं जा रहा था. मैं गिड़गिड़ाया, 'बस बापू.'
पर बापू कहाँ मानने वाले थे. वह गरजे, 'चुप बे. अभी तूने कचहरी कहाँ देखी?' वह दृश्य सोच कर ही मैं काँप उठा. मैंने सपने में भी अपनी आँखें किचकिचा कर बंद कर लीं. मैं सपने में ही गिड़गिड़ाया, 'नहीं बापू. अब रहने दीजिए. मैं तो यह सोच कर काँप रहा हूँ कि इतनी सारी जगहों से निकलने वाले गंदगी के हजारों नाले-परलाने-नद-महानद सब जाते होंगे?'अब बापू खुद रुआंसे हो गए थे. करुणा से भरे स्वर में उन्होने कहा, 'कैसी विडम्बना है कि अब बच्चे अपना घर भी नहीं पहचानते. अरे मूर्ख देख जहाँ तू जी रहा है. मीडिया, साहित्य, सिनेमा ....... इतने तो महासागर हैं इन नालों-महानदों के गंतव्य. और कहाँ जाएंगे.' नींद में ही जो सड़ांध मुझे आई कि मैं असमय जाग उठा. फिर मैंने उस सड़ांध को धन्यवाद दिया. क्योंकि, जैसा कि कहा जाता है, अंग्रेजों से भी न डरने वाले बापू शायद उस सड़ांध के ही भय से भाग चुके थे. मैं आश्वस्त था कि अब वे दुबारा मेरे पास फटकने वाले नहीं थे.

Friday, January 25, 2008

मुर्दा आचरण के खिलाफ

इष्ट देव सांकृत्यायन
आज वह दिन है जब आचार्य रजनीश ने इस दुनिया से विदा ली थी. आचार्य रजनीश से मेरी कभी मुलाक़ात तो नहीं हुई, रूबरू कभी उनको देखा भी नहीं. जब तक वह थे तब तक उनके प्रति में भी वैसे ही विरोध भाव से भरा हुआ था, जैसे वे बहुत लोग हैं जिन्होंने उनको ढंग से पढा-सूना या जाना नहीं. और यह कोई आश्चर्यजनक या अनहोनी बात नहीं हुई. मैंने उन्हें जाना अचानक और वह भी कबीर के मार्फ़त.हुआ यों कि में अपनी बड़ी बहन के घर गया हुआ था और वहाँ जीजा जी के कलेक्शन में मुझे एक किताब मिली 'हीरा पायो गाँठ गठियायो'. यह कबीर के कुछ पदों की एक व्याख्या थी. सचमुच यह हीरा ही था, जिसे मैंने गाँठ गठिया लिया. कबीर के पदों की जैसी व्याख्या रजनीश ने की थी, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ तक कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्य के बडे आलोचकों और व्याख्याकारों से भी नहीं मिल पाई थी. हालांकि तब मैंने उसे अपनी काट-छाँट के साथ पढा था. चूंकि पूरी तरह नास्तिक था, आत्मा-परमात्मा में कोई विश्वास मेरा नहीं था, इसलिए जहाँ कहीं भी वैसी कोई बात आई तो मैंने मन ही मन 'सार-सार को गहि रही, थोथा देई उड़ाय' वाले भाव से उसे डिलीट कर दिया.लेकिन चूंकि रजनीश की व्याख्या में मुझे रस मिल था और उससे कम से कम कबीर के प्रति एक नई दृष्टि भी मिलती दिखी थी, इसलिए इसके बाद भी रजनीश को मैंने छोडा नहीं. जहाँ कहीं भी कबीर पर उनकी जो भी किताब मिली वह में पढ़ता रहा. उसका रस लेता रहा और कबीर के साथ ही साथ रजनीश को भी जानता रहा. हालांकि इस क्रम में कहीं न कहीं जीवन को भी में नए ढंग से नए रूप में जानता रहा. पर तब अपने पूर्वाग्रहों के कारण इस बात को स्वीकार कर पाना शायद मेरे लिए मुमकिन नहीं था.तो इस तरह में ये कह सकता हूँ की रजनीश को मैंने जाना कबीर के जरिये. पर बाद में मैंने इस दुनिया की कई और विभूतियों को मैंने जाना रजनीश के मार्फ़त. हुआ यों कि ऐसे ही चलते फिरते मुझे एक व्याख्या मिली रैदास पर. यह भी रजनीश ने ही की थी. अब 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' जैसी उक्ति के लिए जाने जाने वाले रैदास कोई पोंगापंथी बात तो कह नहीं सकते थे. इसलिए उन्हें पढ़ने में भी कोई हर्ज मुझे नहीं लगी और वह किताब भी खरीद ली. पढी तो लगा कि रैदास तो उससे बहुत आगे हैं जहाँ तक में सोचता था. अभी जिस दलित चेतना की बात की जा रही है उसके बडे खरे बीज रैदास के यहाँ मौजूद हैं. और आचार्य रजनीश के ही शब्दों में कहें तो ये बीज दुनिया को जला देने वाले शोले नहीं, मनुष्य के भीता का अन्धकार मिटाने वाले प्रकाशपुंज के रूप में मौजूद हैं.अव्वल तो तब तक में यही नहीं जानता था कि रैदास ने कवितायेँ भी लिखी हैं. मैंने वह किताब पढ़ते हुए जाना कि रेडियो पर हजारों दफा जो भजन में सुन चुका हूँ, 'तुम चन्दन हम पानी' वह रैदास की रचना है. अभी फिर मैंने वह किताब पढ़नी चाही तो घर में नहीं मिली. नाम तक अब उसका याद नहीं रहा तो मैंने ओशो वर्ल्ड के स्वामी कीर्ति से कहा और उन्होने काफी मशक्कत से ढूंढ कर वह किताब मुझे भिजवाई. अब उसे में नए सिरे से पढ़ रहा हूँ. उसे फिर-फिर पढ़ते हुए फिर-फिर वही मजा आता है, जो पहली दफा पढ़ते हुए आया था.रजनीश के प्रति मेरा विरोध भाव अब तक लगभग विदा हो चुका था. क्योंकि मैंने यह जान लिया था कि उनके कहने के बारे में जो कहानियाँ हैं वे कितनी सही हो सकती हैं. इसी बीच एक और किताब मिली. गोरखवाणी. गोरख के बारे में भी में नहीं जानता था कि उन्होने कवितायेँ भी लिखीं हैं और उनकी कविताओं के भाव जो बताते हैं, उनके अनुसार वह उससे बिलकुल अलग थे जो अब उनके चेले कर रहे हैं. खास तौर से ईश्वर के अस्तित्व के सम्बंच में गोरख की जो धारणा है,'बसती न शून्यम, शून्यम न बसतीअगम अगोचर ऐसागगन सिखर महँ बालक बोलैताका नांव धरहुंगे कैसा'और इसकी जैसी व्याख्या आचार्य रजनीश ने दी है वह किसी के भी मन को झकझोर देने के लिए काफी है. असल में यही वह बिंदु है जहाँ से मेरी अनास्था के बन्धन कमजोर पड़ने शुरू हो गए थे. यह आचार्य रजनीश को पढ़ते हुए ही मुझे लगा कि वस्तुतः अनास्था भी एक तरह का बन्धन ही है. इनकार का बन्धन.आचार्य रजनीश, जिन्हें अब लोग ओशो के नाम से जानते हैं, दरअसल हर तरह के बन्धन के विरुद्ध थे. यहाँ तक कि आचरण और नैतिकता के बन्धन के भी विरुद्ध. लेकिन इसका यह अर्थ एकदम नहीं है कि वह पूरे समाज को उच्छ्रिन्खाल और अनैतिक हो जाने की सीख दे रहे थे. दुर्भाग्य की बात यह है कि उनके बारे में उन दिनों दुष्प्रचार यही किया जा रहा था. आश्चर्य की बात है कि हमारे समाज में ऐसा कोई महापुरुष हुआ नहीं जिसके बारे में दुष्प्रचार न किया गया हो. कबीर और तुलसी तक नहीं बचे अपने समय के बौद्धिक माफियाओं के दुष्चक्र से. यह अलग बात है कि हम मर जाने के बाद सबको पूजने लगते हैं. जिंदा विभूतियों को भूखे मारते हैं और मुर्दों के प्रति अपनी अगाध आस्था जताते हैं. शायद हमारी आस्था भी मुर्दा है और यही वजह है जो हमारा देश मुर्दों का देश हो चुका है.आचार्य रजनीश अकेले व्यक्ति हैं जो इस मुर्दा आस्था के खिलाफ खडे हैं. सीना तान कर. उनका प्रहार कोई नैतिक मूल्यों और अच्छे आचरण पर नहीं है. वह प्रहार करते हैं नैतिकता और आचरण के मुर्देपन पर. वह बार-बार यही तो कहते हैं कि ऐसा कोई भी आचरण या मूल्य जो आपका स्वभाव नहीं बना, वह मुर्दा है. ऐसा अच्छा आचरण सिर्फ तब तक रहेगा जब तक आपके भीतर भय है. भय गया कि अच्छाई गई. इस दुनिया ज्यादातर ईमानदार लोग सिर्फ दो कारणों से ईमानदार हैं. या तो इसलिए कि उन्हें बेईमानी का मौका नहीं मिला, या फिर इसलिए कि बेईमानी की हिम्मत नहीं पडी. भा मिला और मौका मिला कि ईमानदारी गई. रजनीश हजार बार कहते हैं कि मुझे नहीं चाहिए भय और दमन की नींव पर टिकी ऎसी ईमानदारी. मुझे तो सोलहो आने ईमानदारी और सौ फीसदी भलमनसी चाहिए . वह तोता रटंत की कोरी सीख या सरकारी दमन से आने वाली नहीं है. वह आएगी सिर्फ ध्यान से.ध्यान के मुद्दे पर फिर कभी.