इष्ट देव सांकृत्यायन
टी वी वाली ममता जी ने आज अपने ब्लाग पर एक मौजू सवाल उठाया है. वह यह कि क्या वाकई उल्लू के साथ-साथ लक्ष्मी जी आती है? क्या सचमुच जहा उल्लू होते है, वहा लक्ष्मी जी भी होती है? पहली नजर मे अगर अपने अनुभवो के आधार पर अगर बात की जाए तो उनके इस सवाल का जवाब सकारात्मक ही होता है. क्योंकि जहा तक नजर जाती है दिखाई तो यही देता है कि धनवान होने के लिए पढे-लिखे होने की जरूरत नही होती है. इसका पहला उदाहरण तो यह है कि सारे पढने-लिखने वाले लोगो का इरादा कम से कम भारत मे तो एक ही होता है और वह अच्छी से अच्छी नौकरी हासिल करना. यानी नौकर बनना. इसी सिलसिले मे एक शेर भी है : बी ए किया नौकर हुए और मर गए ....
सुनते है कि हिन्दुस्तान मे कभी ऐसा भी समय था जब पढने-लिखने का अंतिम उद्देश्य नौकरी करना नही होता था. तब शायद नौकरी के लिए पढाई जरूरी नही थी. लेकिन जब से हम देख रहे है तब से तो नौकरी के लिए पढाई जरूरी नही, अनिवार्य है. बल्कि पढाई का एक ही उद्देश्य रह गया है और वह है नौकरी करना. जितनी अच्छी पढाई उतनी अच्छी नौकरी. पर अब तो यह भी जरूरी नही रह गया है. बहुत ज्यादा और अच्छी पढाई करके भी मामूली नौकरी से गुजारा करना पड सकता है और मामूली पढाई से भी बहुत अच्छी नौकरी हासिल हो सकती है. यह भी हो सकता है कि मामूली पढाई से आप नौकर रखने की हैसियत बना ले.
वैसे पढाई हमेशा नौकरी करने के लिए ही जरूरी रही है. नौकर रखने यानी मालिक बनने के लिए पढाई कभी जरूरी नही रही है. आज भी देखिए, हमारे देश मे नीतियो का अनुपालन करने यानी चपरासी से अफसर बनने तक के लिए तो योग्यता निर्धारित है, लेकिन नीति नियंता बनने के लिए कोई खास योग्यता जरूरी नही है. यह बात भारतीय गणतंत्र के उच्चतम पदो पर सुशोभित होकर कुछ लोग साबित कर चुके है. यह बात केवल भारत मे हो, ऐसा भी नही है. दुनिया भर के कई देशो मे उच्चतम पदो पर सुशोभित लोग अपनी नीतियो से दुनिया को जिस ओर ले जा रहे है उससे तो यही लगता है कि हर शाख पे ...........
ये फिराक साहब भी कुछ अजीब ही शै थे. ये ठीक है कि हर शाख पे उल्लू बैठा है, पर इससे ये कहा साबित होता है कि ये दुनिया का चमन है वो कही बर्बादी की दिशा मे बढ रहा है. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि या तो फिराक साहब किसी और गुलिस्ता की बात कर रहे थे या फिर उल्लू से खार खाए बैठे थे या फिर उनके नजरिये मे ही कुछ गड्बडी थी. वरना तो गुलिस्ता की बर्बादी के लिए उल्लू को जिम्मेदार ठहराने का कोई तुक ही नही बनता है. उनके पहले परसाई भी उल्लू लोगो के बारे मे ऐसे ही काफी कुछ अनाप-शनाप कह गए है.
मुझे लगता है कि ये सारे वक्तव्य कुंठा मे दिए गए वक्तव्य है. कायदे इन रचनाकारो को उल्लू जी लोगो की आव-भगत करनी चाहिए थी. जैसे गधे को बाप बोलते है वैसे ही इन्हे भी कम से कम चाचा तो बोलना ही चाहिए. हालांकि बाद की पीढी के कुछ साहित्यकारो ने यह भी किया. वे आज तक ऐसा कर रहे है और इसका भरपूर लाभ भी उठा रहे है. अकादमियो और पीठो से लेकर कई-कई समितियो तक इनके दर्शन किए जा सकते है. आखिर लक्ष्मी मैया ने इन्हे अपना रथ और सारथी दोनो एक साथ ऐसे ही थोडे बना लिया होगा. हम यह क्यो भूल जाते है कि अन्धेरे मे देखने की कूवत तो सिर्फ और सिर्फ उल्लू जी लोगो के पास ही होती है.
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1 comment:
इतनी सारगर्भित पोस्ट पर एक टिप्पणी हल्की फ़ुल्की सी !
ममता (मेरी नवोदित बिछड़ी हुई बहन ) के प्रश्न का उत्तर तो आप दे रही चुके हैं, मेरे लिये बचा ही क्या ?
उल्लेखनीय है कि पढ़े और कढ़े में भी अंतर होता
अवश्य होगा । सड़क किनारे गुमटी लगाये अर्धशिक्षित मिस्त्री से बेरोज़गार इंज़ीनियर साहब को
स्कूटर में फाल्ट ढुँढ़वाते मैंने स्वयं देखा है !
मैं यह स्पष्ट करना नहीं चाहुँगा कि यहाँ उल्लू किसको कहा जाय, क्योंकि मैं स्वयं ही निर्धारित्नहीं कर पाया ।
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