Wednesday, June 11, 2008

क्यूंकि वो पागल है...!!!


दिनेश सक्सेना
पिछले काफी समय से अपने घर से थोडी दुरी पर मुझे एक जर्जर शरीर में कैद एक रूह दिखाई देती थी...शरीर को जर्जर इसलिए कह रहा ह क्यूंकि वो तो बिल्कुल बेजान हो चुका था या दुसरे लफ्जों में कहे तो उस चलती फिरती शख्सियत के अस्तित्व में उस शरीर का नही बल्कि उस रूह का ही योगदान ज्यादा है। वो रूह ही एहसाह दिलाती थी की ' मैं जिंदा हूँ ' ये अलग बात थी कीउसके आसपास से गुजरने वाले लोग उसे देख कर हँसते टिपण्णी करते और चले जाते। सभ्य समाज में उस औरत को पागल की संज्ञा दी गई थी।
पागल का नाम जेहन में आते ही लोगो के मन में वही फिल्मी स्टाइल के पागल घूमते होंगे। सजे धजे पागलो की जमात में नाचते गाते या फ़िर चिल्लाते...लेकिन ये औरत देखने में बिल्कुल वैसी नही थी। भाई हो भी कैसी उसे पागल का किरदार नही निभाना था बल्कि उसे तो उस किरदार को जीना है। जी रही है वो,, पागल है फ़िर भी अलग है। मेरे मन में उसकी जिंदगी को देखने की ललक जगी। तो मैंने शुरू कर दिया इसी पागल नाम के प्राणी को ध्यान से देखना।
वो औरत सुबह १० बजने के साथ ही अपना सफर शुरू कर देती है और करीब २ किलोमीटर लम्बी सड़क पार कर सड़क के इस किनारे पर पहुँच जाती। मैला कुचैला सलवार सूत, बारीक़ कटे हुए बाल, खाली हाथ कभी ख़ुद से नाराज़ तो कभी ख़ुद से ही खुशी.... मेरे जेहन में रह रहकर सवाल उठते थे की इसमे ऐसा क्या है जो इसे पागल कहा जाए? तभी मैंने देखा की सड़क पार करते हुए उसे अचानक सामने से आती हुई बस दिखती है। उसी के साथ एक और युवती भी रोड क्रॉस कर रही थी। अब जरा देखें वो युवती भागती हुए सड़क पार कर गई लेकिन वो पागल औरत ने बस के वह से निकलने का इंतज़ार किया और फ़िर वह से निकली।
एक दिन कुछ बच्चे उसके पास जाकर उससे हंसाने की कोशिश करते रहे लेकिन वो औरत ख़ुद ही वहाँ से दूर निकल गईमेरा चिंतन और गहरा रहा था की पागल है तो क्यों है? मुझे तो लगता है की वो तो हम सब से ज्यादा समझदार है, ज्यादा धैर्यवान है जो उसने इस दुनिया में अकेले रहना सीख लिया। उसने अकेले ख़ुद को संभालना भी सीख लिया। उसकी अपनी खुशी अपने गम हैं। बस वो उन्हें हमारे साथ बांटना नही चाहती।
एक हमारी वो जिंदगी है जहाँ एक घर के नीचे रहते हुए भी हम एक दुसरे के साथ हंसने बोलने का समय नही निकल पाते। खुशी की वजह मिलने पर भी खुलकर हंसने का समय नही और एक वो है जिसके पास कुछ भी नही फ़िर भी वो हंसती भी है रोटी भी है...
सवाल यहाँ ये भी हैं की उसके भी अपने नाते रिश्तेदार होंगे लेकिन अज उसे रोकने वाला कोई नही और अगर वो सच में पागल है तो उसके इलाज के लिए आगे आने वाला कोई नही।
समाज देखता है तो सिर्फ़ इतना की वो पागल है...ये क्यों नही देखता की वो पागल है या वो समाज भी पागल है जिसने उसे पागल की श्रेणी में पहुँचाया है...क्या उस जैसी तम्मा रूह सडको पर केवल इसलिए हँसी का पत्र बनती रहेंगी क्यूंकि वो पागल है......या उसमे कैद रूह को उसका जामी और आसमा भी मिलेगा.......

क्या लड़कियां वाकई भोली होती हैं....

कविलाश मिश्रा
बेटियों की बाबुल की गुडिया कहा जाता था। कोई उन्हें बाबुल की रानियाँ भी कहता है, मैं भी अभी कुछ समय पहले तक यही सोचता था। लेकिन इसे मेरा सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य की मैं ऐसे पेशे में हूँ जहाँ बहुत सारे भ्रम टूटते देर नही लगती मैं ये तो नही कहूँगा की मेरी बेटियों के बारें में चावी पुरी तरह से बदल चुकी है लेकिन काफी हद तक ये सोचने पर जरुर मजबूर कर दिया है की क्या लड़कियां वाकई इतनी भोली होती हैं जितना उन्हें समझा जाता है?
पिछले कुछ समय में मेरे सामने कुछ ऐसे मामले आए जिन्होंने मुझे आज की बेटी और उसकी बदलती सोच पर सोचने के लिया मजबूर कर दिया। अभी हाल ही में एक २१ साल की युवती अचानक अपने कार्यस्थल से गायब हो गई। माता- पिता की ये लाडली गुडिया उसके अभिभावकों ही नही बल्कि रिश्तेदारों और पडोसियों में भी काफी लाडली थी। ज़ाहिर है की उसके गायब होने ने पूरे परिवार को हिला कर रख दिया। पोलिस ने जब उस के चल चलन के बारे में पूछना चाह तो अभिभावक भड़क गए। उन्होंने पुलिस पर ही ठीक से जांच न करने का आरोप भी लगा दिया। पिता ने कहा मेरी बेटी बहुत सीधी और समझदार थी। लेकिन अगले ही दिन पुलिस ने उसे बरामद कर लिया। जांच में ये भी सामने आया की वो सीधी लड़की अपने एक अंतर्जतिये प्रेमी के साथ भागी थी औरअपने अपहरण का नाटक रचा था। मजिस्ट्रेट के सामने लड़की ने जो बयां दिया वो और भी चौकाने वाला था। लड़की ने साफ कर दिया की उसे कोई नशीला पदार्थ खिला कर उसका अपहरण किया था। लड़की की बात छोड़ दे तो बात अब उस लड़के की जिसको इस प्यार में मिली जेल की सलाखें।
कुछ ऐसा ही मामला एक बार पहले भी सामने आ चुका है। यहाँ भी एक प्रतिष्ठित परिवार की लड़की गायब होती है, लौटकर आती है और फ़िर कहती है की उसी के प्रेमी ने उसका अपहरण किया है। जिला जेल में ऐसे कई युवा प्यार की सज़ा भुगत रहे हैं जिनके अपने ही प्यार ने उन पर जबरन शादी से लेकर शारीरिक शोषण तक के आरोप लगाये। यहाँ सवाल ये है की क्या वाकई लड़कियां इतनी ही भोली होती हैं? आखिर वो ऐसा करके क्या साबित करना चाहती हैं? अगर उन्हें सच में प्यार है तो फ़िर पुलिस से पकड़े जाने पर वो मुकर क्यों जाती हैं और यदि परिवार के दवाब में ये कदम उठती हैं तो फ़िर पहले ये कदम उठाते हुए एक बार भी क्यों नही सोचती? ये वो लड़कियां जो किसी बड़ी कम्पनी में सेवारत हैं। क्या अपने ही माता पिया के विश्वास को धोखा देने वाली लड़किउँयां भोली हो सकती हैं या फ़िर ये मौका परस्त संस्कृति की शुरुआत है जो अपनी शर्त पर अपने फायदे के लिए जीने की चाह है जिसके आगे किसी की खुशी किसी के सम्मान की कोई कीमत नही रह जाती। आज ये यक्ष प्रश्न उस समाज के सामने भी है जो आधुनिकता और स्टेटस के नाम पर उस अंधी दौड़ में शामिल हो चुका है जहाँ माता पिता को भी अपने बच्चो के लिए टाइम नही है.....

Monday, March 31, 2008

ये जो है जिंदगी

ठहरी है जिंदगी
मगर मैं सफर में हूँ
यूं तो सारे हैं अपने
मगर न जाने किसकी
नज़र में हूँ
कहती रही है दुनिया
जिंदगी जिसे
में शायद उसी
ज़हर में हूँ
अंधेरे हैं चारो और मेरे
मगर कहने को में
सेहर में हूँ
अपनों के लिए अपनों को फुरसत नही
में ऐसे मतलबी शहर में हूँ
कदम कदम पर बस ठोकरें है, जहाँ
में ऐसी पथरीली डगर में हूँ
हर लम्हा बीत जाता है इसी उम्मीद में
शायद कल में भी किसी असर में हूँ ...
प्रतीक्षा सक्सेना

Friday, March 28, 2008

ये कैसी बराबरी!


प्रतीक्षा सक्सेना

अभी हाल ही में प्रदेश सरकार ने लड़कियों और लड़कों की बराबरी की मुहीम छेड़ दी है। राजधानी मे जेंडर सेंसितीसशन यानि लिंग सम्वेदिकरण की कार्यशाला भी लगा ली गई। वर्कशॉप में जिस बात पर जोर था उनमे से प्रमुख बात ये भी थी की किसी रोते हुए बच्चे को ये ना कहा जाए की क्या लड़कियों की तरह रो रहा है। या फ़िर परिवार में बेटा और बेटी दोनों हो तो केवल बेटी से अपेक्षा ना करें की वो ही पानी लाकर देगी। विषय क्यूंकि महिलाओं के हित के थे तो शायद मेरे अन्दर की लड़की भी जाग गई। शिक्षा विभाग के कर्णधारों से बहस भी छिड गई की वास्तव में बराबरी की परिभाषा हैं क्या ?

जो महिलावादी संगठनो की ओर से गढ़ी जा रही है वो वास्तव में बराबरी की वकालत है या फ़िर एक सामजिक ढाँचे को तोड़ने की तैयारी? बहस बढ़ी तो वहाँ मौजूद एक 'पुरूष' ने महिला हितों की दुहाई देते हुए कहा की बात तो सही है, आखिर रोने पर लड़कियों से तुलना करना तो लड़की का अपमान ही है और जो कवायद लड़की को समता का दर्जा दिलाने के लिए की जा रही है उसकी पहली सीधी भी

अब तक मैं फ़िर एक चिंतन में घिरती जा रही थी। सवाल मेरे सामने एक बार फ़िर से सर उठाने लगा था की दरअसल बुरा क्या है? 'रोना' या 'लड़की' ? कहीं रोना इसलिए ही तो बुरा नही माना जा रहा क्यूंकि लड़कियां आसानी से रो लेती हैं? यदि वास्तव में रोना ही बुरा है तो फ़िर इस 'तुलना' पर ऐतराज़ क्यों? ऐतराज़ तो रोने पर होना चाहिए...

फ़िर चाहे वो लड़का रोये या लड़की। कार्यशाला में इस बात पर ज़ोर क्यों नही दिया गया की लड़कियों को जागरूक किया जाए की वो रोना बंद करें। अगर vigyaanik रूप से देखा जाए तो रोना तो बहुत himmat का काम है, और वो भी किसी के सामने। शायद यही wajha है की mahilaon में sehanshakti भी पुरुषों के मुकाबले ज्यादा pai jati है। वो रो लेती हैं तो उनकी ego आगे नही आती। फ़िर ये रोना इतना बुरा क्यों है?

अब बात dusari बराबरी की। जहाँ बात pani लाने या न लाने की थी। तो यहाँ भी मैंने sawal यही किया की क्या घर के काम मई pehal करना इतना बुरा काम है या फ़िर उस काम को सिर्फ़ isiliye छोटा माना जा रहा है क्यूंकि उस काम को पिछले kafi साल से औरत ही करती आ रही है? क्या हर वो काम छोटा है जो औरत ने किया है? एक तरफ़ तो हम अपनी betiyon को majbut banne की बात kehte हैं और dusri ओर उन्हें उस jagaha dhakel रहे हैं jahan वो अपनी molik kshamtaaon से dur हो jaayen। ये कैसी बराबरी? क्या sikhaana चाहते हैं हम?

जोड़ने की जो kuwwat औरत में है क्या उसे khatm कर देना बराबरी है? sewa और sanskaar जो गुन हैं क्या unhe अपने चरित्र से nikaal fenkana बराबरी है? क्यों जब भी औरत के sashaktikaran की बात होती है तो उसकी buraiyon को dhunda jataa है? उसकी achchaiyon को किसी karyashalaa का hissa क्यों नही banaayaa jataa? उसके shant swabhaaw, vinarmtaa और sehyog जैसे shabdo पर कार्यशाला कभी किसी ladke की क्यों नही होती? लेकिन शायद mahilawad का sur alaapne वालों ने शायद उसकी khubiyon को ही उसकी कमजोरी saabit करना अपने abhiyaan की safaltaa समझ लिया है....आखिर कब तक?

काश मैं कुत्ता होता...


कविलाश मिश्रा

हाल ही में महानगर में एक सरकारी महकमे की तरफ़ से एक कुता प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। कुत्तों के बारें में मैं ख़ुद को अगर विशेषज्ञ नही मानता था तो उससे से कम भी नही समझता था। गाँव से लेकर शहर तक मेरा पाला कई बार कुत्तों से पड़ चुका था। लेकिन डौग शो में जाकर मैंने पाया की कुत्तों के बारें में मेरी जानकारी किसी नौसिखिये जैसी थी। आयोजन में जाकर मैंने जो देखा उसकी चर्चा तो मैं बाद में करूंगा लेकिन वहाँ पहुंचकर मुझे अपने साथ गुजरा एक वाकया याद आ गया जो मैं यहाँ भी बांटना चाहूंगा

कई साल पहले मेरे एक मित्र मेरा कुत्ता प्रेम देखकर मुझे कुत्ता खरीदवाने ले गया। एक डोबर्मन मुझे पसंद आया लेकिन मैंने उसे इसलिए नही ख़रीदा क्यूंकि उसकी कीमत पाँच हज़ार रूपैये थी। लेकिन मैं पसंद आने पर भी एक अन्य पामेरियन भी इसलिए ही नही खरीद पाया क्यूंकि उसकी कीमत भी चार हज़ार रूपैये थी। मन मारकर मैं लौट आया। मेरे दोस्त ने मुझ पर लानत मारी। शौक कुत्ते के और खर्च से डर, भला कैसे संभव है? वक्त बीता। बच्चे बड़े हुए तो घर में कुत्तों की जगह टेडी की शक्ल में कुत्ते और रीछ आने लगे। एक दिन मेरी बिटिया ने अपनी सहेली के बर्थ डे पर टेडी बियर या टेडी कुत्ता देने की फरमाइश कर डाली। मैं उसे एक गिफ्ट शॉप पर ले गया। वहाँ एक से एक खूबसूरत टेडी बियर और टेडी दोगdइस्प्लय थे। आदम कद के कुत्ते और टेडी पलंग पर आराम फरमा रहे थे।

मैंने मुर्दा कुत्ते की कीमत जाननी शुरू करी। सबसे छोटा कुत्ता ३०० रूपैये का और सबसे बड़ा १५००० रूपैये का। मैं फ़िर हैरान था। मैंने दूकानदार से आख़िर पूछ ही लिया की इतने महंगे टेडी बिकते भी हैं या फ़िर सिर्फ़ दिखाने को रखे हैं? दूकानदार ने मुझे हिकारत की नज़र से देखा और कहा की सामने जो टेडी लगा है उसकी कीमत २१००० रूपैये है। वह अडवांस में ही बिक चुका है। मैंने फ़िर पूछ ही लिया की भइया या किस काम आते होंगे? दुकानदार ने आश्चर्य से एक बार फ़िर मेरी औरदेखा और बोला की साहब आप भी कैसी बात करते हैं, अरे भाई बड़े घरों की लड़किया बिस्तर पर इन्हे साथ लेकर सोती हैं।

इस संवाद के बाद मैं ख़ुद को कोसता हुआ दूकान से बाहर निकला और सोचने लगा की मेरा ज्ञान भी कितना बौना हैजो कुत्तों के बारें में कुछ जानता ही नही ह। एक ओर जहाँ बेजान कुत्ते २० हज़ार से ऊपर की कीमत में बिक रहे हैं वहा मुझे २००० का कुत्ता भी महंगा लग रहा था।

बहरहाल अब बात कुत्ता प्रदर्शनी की। शो में भाँती-भाँती के कुत्ते आए हुए थे। मैंने भी काफी कुत्तों की नसल जानने की कोशिश की। अधिकांश नसल ऐसी थी जिनके बारें में मैंने पहले कभी नही सूना था। उनके मालिकों ने उन्हें ऐसे सजाया था की हर कुत्ता लाजवाब लग रहा था। कुत्ता औरमालिक एक दुसरे के साथ इतनी शान से चल रहे थे की ये अंदाजा ही नही लगाया जा सकता था की कौन किसे घुमा रहा हैमुझे भी लगा की मैं भी एक कुत्ता पालकर अभिजात्या वर्ग में शामिल हो जाऊँ। मैं देख ही रहा था की आज मकान और गाड़ी के साथ कुत्ता रखना भी स्तेतुस स्य्म्बोल बनता जा रहा है तो फ़िर मैं भी ऐसा ही क्यों ना करू। मुझे छोटा सा पमेरियन नसल का कुत्ता भा गया। मैंने उसके मालिक से कुत्ते की कीमत पूछ ली। उस आदमी ने उस की कीमत ५५ से ६० हज़ार रूपैये बताई। मैंने आश्चर्या का भाव जताया ही था की तभी वहाँ मेरे एक मित्र ने आकर कहा की यहाँ क्या देख रहे हो, वहाँ देखो ५ लाख का कुत्ता भी बैठा है। अब तो मैं उस रहीस कुत्ते के दर्शनों के लिए बेकरार हो चुका था। मैंने उसके मालिक सा बात करनी शुरू की तो उसने लाचारगी जताते हुए कहा की भाई साहब मेरी तो किस्मत ख़राब है। अभी हाल ही में एक २० लाख का कुत्ता मार्केट में बिकने के लिए आया था लेक्नी जब तक मैं उसे खरीद पाटाटैब तक मेरे एक प्रतिदुंदी ने खरीद लिया। मैंने उस कुत्ते को देखने की इच्छा जाहिर की तो उसने मुझे एक आदमी के साथ उसके दर्शन के लिए भेज दिया। अब तक इस कुत्ते की कीमत ४० लाख पहुँच चुकी थी। उसकी लगाम थामे व्यक्ति से मेरा परिचय हुआ। मैंने उस व्यक्ति को इस शाही कुत्ते का मालिक होने पर बधाई भी दी। उन्होंने मुझे बताया की असली कुत्ते तो मैं यहाँ लेकर ही नही आया हूँ। दरअसल यहाँ गर्मी काफी हैं ना और वो बेचारा एडजस्ट नही कर पता। वैसी भी ऐसे शो तो उसके लिए छोटे मोटे इवेंट्स हैं। ऐसे अवार्ड्स तो वो जीतता ही रहता है।

बातचीत के बीच एक सिक्यूरिटी गार्ड ने उसके हाथ में एक पैकेट लाकर दिया। मेरी उत्सुकता अब उस पैकेट के प्रति थी। पूछने पर पता चला की ये कुत्ते का भोजन था। एक प्लेट में पैकेट सी सामग्री निकाली जा रही थी। मैंने ऐसी सामग्री पहले कभी नही देखथी। मालूम करने पर पता चला की एक पैकेट की कीमत १००० रूपैये है। यह कुत्तों की इम्पोर्टेड डाइट थी। और उनका प्यारा सा आची सा पूछी सा प्लूटो एक दिन में इसके दो पैकेट उड़ा देता है। ये वह भोजन है जो ये कुत्ते दिनभर में दूध अंडे और डबल रोटी से अलग गटक जाते हैं। अब सोचने की बारी मेरी थी की आख़िर मैं कुत्ता क्यों नही हुआ......??

Thursday, March 20, 2008

बर्बाद गुलिस्ता करने को .....

इष्ट देव सांकृत्यायन
टी वी वाली ममता जी ने आज अपने ब्लाग पर एक मौजू सवाल उठाया है. वह यह कि क्या वाकई उल्लू के साथ-साथ लक्ष्मी जी आती है? क्या सचमुच जहा उल्लू होते है, वहा लक्ष्मी जी भी होती है? पहली नजर मे अगर अपने अनुभवो के आधार पर अगर बात की जाए तो उनके इस सवाल का जवाब सकारात्मक ही होता है. क्योंकि जहा तक नजर जाती है दिखाई तो यही देता है कि धनवान होने के लिए पढे-लिखे होने की जरूरत नही होती है. इसका पहला उदाहरण तो यह है कि सारे पढने-लिखने वाले लोगो का इरादा कम से कम भारत मे तो एक ही होता है और वह अच्छी से अच्छी नौकरी हासिल करना. यानी नौकर बनना. इसी सिलसिले मे एक शेर भी है : बी ए किया नौकर हुए और मर गए ....
सुनते है कि हिन्दुस्तान मे कभी ऐसा भी समय था जब पढने-लिखने का अंतिम उद्देश्य नौकरी करना नही होता था. तब शायद नौकरी के लिए पढाई जरूरी नही थी. लेकिन जब से हम देख रहे है तब से तो नौकरी के लिए पढाई जरूरी नही, अनिवार्य है. बल्कि पढाई का एक ही उद्देश्य रह गया है और वह है नौकरी करना. जितनी अच्छी पढाई उतनी अच्छी नौकरी. पर अब तो यह भी जरूरी नही रह गया है. बहुत ज्यादा और अच्छी पढाई करके भी मामूली नौकरी से गुजारा करना पड सकता है और मामूली पढाई से भी बहुत अच्छी नौकरी हासिल हो सकती है. यह भी हो सकता है कि मामूली पढाई से आप नौकर रखने की हैसियत बना ले.
वैसे पढाई हमेशा नौकरी करने के लिए ही जरूरी रही है. नौकर रखने यानी मालिक बनने के लिए पढाई कभी जरूरी नही रही है. आज भी देखिए, हमारे देश मे नीतियो का अनुपालन करने यानी चपरासी से अफसर बनने तक के लिए तो योग्यता निर्धारित है, लेकिन नीति नियंता बनने के लिए कोई खास योग्यता जरूरी नही है. यह बात भारतीय गणतंत्र के उच्चतम पदो पर सुशोभित होकर कुछ लोग साबित कर चुके है. यह बात केवल भारत मे हो, ऐसा भी नही है. दुनिया भर के कई देशो मे उच्चतम पदो पर सुशोभित लोग अपनी नीतियो से दुनिया को जिस ओर ले जा रहे है उससे तो यही लगता है कि हर शाख पे ...........
ये फिराक साहब भी कुछ अजीब ही शै थे. ये ठीक है कि हर शाख पे उल्लू बैठा है, पर इससे ये कहा साबित होता है कि ये दुनिया का चमन है वो कही बर्बादी की दिशा मे बढ रहा है. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि या तो फिराक साहब किसी और गुलिस्ता की बात कर रहे थे या फिर उल्लू से खार खाए बैठे थे या फिर उनके नजरिये मे ही कुछ गड्बडी थी. वरना तो गुलिस्ता की बर्बादी के लिए उल्लू को जिम्मेदार ठहराने का कोई तुक ही नही बनता है. उनके पहले परसाई भी उल्लू लोगो के बारे मे ऐसे ही काफी कुछ अनाप-शनाप कह गए है.
मुझे लगता है कि ये सारे वक्तव्य कुंठा मे दिए गए वक्तव्य है. कायदे इन रचनाकारो को उल्लू जी लोगो की आव-भगत करनी चाहिए थी. जैसे गधे को बाप बोलते है वैसे ही इन्हे भी कम से कम चाचा तो बोलना ही चाहिए. हालांकि बाद की पीढी के कुछ साहित्यकारो ने यह भी किया. वे आज तक ऐसा कर रहे है और इसका भरपूर लाभ भी उठा रहे है. अकादमियो और पीठो से लेकर कई-कई समितियो तक इनके दर्शन किए जा सकते है. आखिर लक्ष्मी मैया ने इन्हे अपना रथ और सारथी दोनो एक साथ ऐसे ही थोडे बना लिया होगा. हम यह क्यो भूल जाते है कि अन्धेरे मे देखने की कूवत तो सिर्फ और सिर्फ उल्लू जी लोगो के पास ही होती है.

Wednesday, March 19, 2008

हॉकी का खेल और स्टिक प्रेम

इष्ट देव सांकृत्यायन

हाकी के खेल से मुझे बहुत प्यार है. करीब-करीब उतना ही जितना गिल साहब को या शाहरुख खान को. यह दावा तो मै नही कर सकता कि तभी से जब से इन दोनो स्टारो को है, पर इतना तो मै दावे के साथ कह ही सकता हू मुझे भी हाकी के उसी तत्व से प्रेम है, जिससे इन दोनो महानुभावो का है. हाकी के प्रति सम्वेदनशील हर व्यक्ति का प्रेम सही पूछिए तो हाकी के उसी तत्व से है. यह तत्व है हाकी स्टिक.
जी हा! यकीन मानिए, हाकी के खेल से जुडे मूढ्मति लोगो ने इस तत्व की बडी उपेक्षा की है. यह बात केवल हिन्दुस्तानी हाकी चिंतको के साथ हो, ऐसा भी नही है. अव्वल तो उपेक्षा का यह आरोप दुनिया भर के हाकीवादियो पर वैसे ही यूनिफार्मली सही है जैसे दुनिया भर के राजनेताओ पर चरित्रवान होने की बात. क्रिकेट के लोगो ने इस बात को समझा और नतीजा सबके सामने है. उन्होने बाल से ज्यादा बैट पर ध्यान दिया. उनकी यह रीति हमेशा से चली आ रही है. आज भारत और पाकिस्तान से लेकर आस्ट्रेलिया तक क्रिकेट रनो और ओवरो के लिए उतना नही जाना जाता जितना विवादो के लिए. वैसे भी खेल के लिए कोई कितने दिनो के लिए जाना जा सकता है? ज्यादा से ज्यादा उतने दिन जब तक खेल चले. इसके बाद? कोई जिक्र तक नही करता.
तो साल भर चर्चा मे बने रहने के लिए तो कोई न कोई एक्स्ट्रा एफर्ट चाहिए न! यह एक्स्ट्रा एफर्ट आखिर कैसे किया जाए? अब या तो सिनेमा की तरह पूरे साल कुछ न कुछ प्यार-व्यार के झूठे किस्से ही चलाए जाए या फिर विवाद गरमाए जाए. हाकी वालो के प्यार-व्यार के किस्से को कोई बहुत तर्जीह इस्लिए नही देगा क्योंकि इनकी भरती सिनेमा वालो की तरह रंग-रूप के आधार पर होती नही. जाहिर है, इनको सुन्दरता के आधार पर प्यार वाला ग्रेस मिलने से रहा. मिलना होता तो लालू जी ने पी टी उषा के बजाय बिहार की सड्को को हेमामालिनी के गाल जैसे बनाने की बात नही की होती. तो जाहिर है कि हाकी को चर्चा विवादो से ही मिलनी है और विवाद पैदा होते है डंडे से. डंडा यानी स्टिक.
दरसल हाकी से मेरा पहला परिचय भी इसी रूप मे हुआ था. हुआ यह कि स्कूल के दिनो मे कुछ मित्रो से विवाद हुआ. उन दिनो स्कूलो मे कट्टा आदि कोर्स मे शामिल नही थे. पर हाकी थी. लिहाजा अपने बचाव के लिए मै हाकी लेकर गया और फिर मुझे रन बनाना नही पडा. मैने अपने प्रतिस्पर्धी गुट से कई रन बनवाए.निश्चित रूप से गिल साहब का परिचय भी हाकी से इसी तरह हुआ होगा. इसका सफल प्रयोग उन्होने पंजाब मे किया. इस सम्बन्ध मे किसी से कोई प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नही है.
स्टिक यानी डंडे का एक मतलब लाठी भी होता है. लाठी हमारी संस्क्रिति का उतना ही अभिन्न अंग है जितना कि भ्रष्टाचार. बालको का उपनयन यानी जनेऊ होता है तो तमाम संस्कारो के बाद उन्हे दंड यानी लाठी ही थमाई जाती है. वे लाठी लेकर विद्या ग्रहण करने निकलते है. विद्यालय मे गुरुजन भी लाठी रखते है. सरकार मे पुलिस से लेकर बाबू और अफसर तक सभी किसी न किसी तरह की लाठी जरूर रखते है. उसी लाठी से वे हमेशा यह साबित करते रहते है कि भैंस उनकी है. इसीलिए जिसकी लाठी उसकी भैंस हमारे देश का सर्वमन्य सिद्धांत और कानून है.
गिल साहब इसका प्रयोग हर तरह से कर चुके है। पंजाब मे उन्होने लाठी के ही दम पर साबित किय था कि यह हमारा है. लाठी से ही उन्होने पंजाब से आतंकवाद खत्म किया था. गिल साहब दो ही बातो के लिए तो जाने जाते है. एक लाठी चलाने और दूसरा खत्म करने के लिए. जिस दिन उन्हे भारतीय हाकी संघ का सरपरस्त बनाया गया, अपन तो उसी दिन आश्वस्त हो गए थे. हाकी के भविष्य की चिंता हमने उसी दिन से छोड दी. इस्के बाद अगर किसी ने चिंता जारी रखी तो उसे हमने वही समझा जो हमारे भारत के नेता लोग जनता को समझते है. मै गिल साहब की प्रतिभा को जानता हू, पर क्या बताऊ मेरे हाथ मे कोई जोरदार लाठी नही है. वरना मै गिल साहब को भारतीय राजनीति का सरपरस्त बनाता. आप अन्दाजा लगा सकते है कि फिर क्या होता!