Friday, March 28, 2008

ये कैसी बराबरी!


प्रतीक्षा सक्सेना

अभी हाल ही में प्रदेश सरकार ने लड़कियों और लड़कों की बराबरी की मुहीम छेड़ दी है। राजधानी मे जेंडर सेंसितीसशन यानि लिंग सम्वेदिकरण की कार्यशाला भी लगा ली गई। वर्कशॉप में जिस बात पर जोर था उनमे से प्रमुख बात ये भी थी की किसी रोते हुए बच्चे को ये ना कहा जाए की क्या लड़कियों की तरह रो रहा है। या फ़िर परिवार में बेटा और बेटी दोनों हो तो केवल बेटी से अपेक्षा ना करें की वो ही पानी लाकर देगी। विषय क्यूंकि महिलाओं के हित के थे तो शायद मेरे अन्दर की लड़की भी जाग गई। शिक्षा विभाग के कर्णधारों से बहस भी छिड गई की वास्तव में बराबरी की परिभाषा हैं क्या ?

जो महिलावादी संगठनो की ओर से गढ़ी जा रही है वो वास्तव में बराबरी की वकालत है या फ़िर एक सामजिक ढाँचे को तोड़ने की तैयारी? बहस बढ़ी तो वहाँ मौजूद एक 'पुरूष' ने महिला हितों की दुहाई देते हुए कहा की बात तो सही है, आखिर रोने पर लड़कियों से तुलना करना तो लड़की का अपमान ही है और जो कवायद लड़की को समता का दर्जा दिलाने के लिए की जा रही है उसकी पहली सीधी भी

अब तक मैं फ़िर एक चिंतन में घिरती जा रही थी। सवाल मेरे सामने एक बार फ़िर से सर उठाने लगा था की दरअसल बुरा क्या है? 'रोना' या 'लड़की' ? कहीं रोना इसलिए ही तो बुरा नही माना जा रहा क्यूंकि लड़कियां आसानी से रो लेती हैं? यदि वास्तव में रोना ही बुरा है तो फ़िर इस 'तुलना' पर ऐतराज़ क्यों? ऐतराज़ तो रोने पर होना चाहिए...

फ़िर चाहे वो लड़का रोये या लड़की। कार्यशाला में इस बात पर ज़ोर क्यों नही दिया गया की लड़कियों को जागरूक किया जाए की वो रोना बंद करें। अगर vigyaanik रूप से देखा जाए तो रोना तो बहुत himmat का काम है, और वो भी किसी के सामने। शायद यही wajha है की mahilaon में sehanshakti भी पुरुषों के मुकाबले ज्यादा pai jati है। वो रो लेती हैं तो उनकी ego आगे नही आती। फ़िर ये रोना इतना बुरा क्यों है?

अब बात dusari बराबरी की। जहाँ बात pani लाने या न लाने की थी। तो यहाँ भी मैंने sawal यही किया की क्या घर के काम मई pehal करना इतना बुरा काम है या फ़िर उस काम को सिर्फ़ isiliye छोटा माना जा रहा है क्यूंकि उस काम को पिछले kafi साल से औरत ही करती आ रही है? क्या हर वो काम छोटा है जो औरत ने किया है? एक तरफ़ तो हम अपनी betiyon को majbut banne की बात kehte हैं और dusri ओर उन्हें उस jagaha dhakel रहे हैं jahan वो अपनी molik kshamtaaon से dur हो jaayen। ये कैसी बराबरी? क्या sikhaana चाहते हैं हम?

जोड़ने की जो kuwwat औरत में है क्या उसे khatm कर देना बराबरी है? sewa और sanskaar जो गुन हैं क्या unhe अपने चरित्र से nikaal fenkana बराबरी है? क्यों जब भी औरत के sashaktikaran की बात होती है तो उसकी buraiyon को dhunda jataa है? उसकी achchaiyon को किसी karyashalaa का hissa क्यों नही banaayaa jataa? उसके shant swabhaaw, vinarmtaa और sehyog जैसे shabdo पर कार्यशाला कभी किसी ladke की क्यों नही होती? लेकिन शायद mahilawad का sur alaapne वालों ने शायद उसकी khubiyon को ही उसकी कमजोरी saabit करना अपने abhiyaan की safaltaa समझ लिया है....आखिर कब तक?

3 comments:

Anonymous said...

घर में काम का बंटवारा काफी व्यावहारिक ढंग का है. गैस खत्म हो जाए तो सिलेंडर लाने लड़की नहीं जाती. किसी मेहमान को स्टेशन से लाने या छोड़ने जाना हो तो लड़का जाएगा. बिजली कट जाय, बिल जमा करना हो या केबिल जुड्वाना हो तो लड़का जाकर देखेगा
असली पक्षपात वहाँ है जब घर में उपलब्ध एक गिलास दूध माता जी बेटे को पिला देती हैं और बेटी चुपचाप देखती रहती है. बेटे को कपडे, खिलौने,व उपहार (व बाद में जीवन साथी भी) उसकी पसंद के मिलते हैं जबकि बेटी प्रायः माँ-बाप की पसंद से ही संतुष्ट होने को मजबूर है.

Unknown said...

प्रतीछा बधाई हो,
ब्लाग पर तो खुलकर लिखो, यहां यह ध्यान मत देना कि बाँस कापी चेक करेगा. दिल से लिखो, हर बहस केवल स्त्री पुरुष के बीच नहीं होती है, वास्तव में इस सबके बीच व्यक्तित्व भी शामिल होता है, यद्यपि बेटियों व बेटों का मुद्दा अभी खतम नहीं हुआ है किंतु लोग इस अवरोध को पार कर आगे बढ़ने लगे हैं, आगे के समय पर भी नजर रखो, अच्छ लिखती हो, मेरी फिर से बधाई

बृजेश सिंह

Anonymous said...

Sahi baat he such likhane wale bahut kam he