Monday, March 31, 2008

ये जो है जिंदगी

ठहरी है जिंदगी
मगर मैं सफर में हूँ
यूं तो सारे हैं अपने
मगर न जाने किसकी
नज़र में हूँ
कहती रही है दुनिया
जिंदगी जिसे
में शायद उसी
ज़हर में हूँ
अंधेरे हैं चारो और मेरे
मगर कहने को में
सेहर में हूँ
अपनों के लिए अपनों को फुरसत नही
में ऐसे मतलबी शहर में हूँ
कदम कदम पर बस ठोकरें है, जहाँ
में ऐसी पथरीली डगर में हूँ
हर लम्हा बीत जाता है इसी उम्मीद में
शायद कल में भी किसी असर में हूँ ...
प्रतीक्षा सक्सेना

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