कविलाश मिश्रा
बेटियों की बाबुल की गुडिया कहा जाता था। कोई उन्हें बाबुल की रानियाँ भी कहता है, मैं भी अभी कुछ समय पहले तक यही सोचता था। लेकिन इसे मेरा सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य की मैं ऐसे पेशे में हूँ जहाँ बहुत सारे भ्रम टूटते देर नही लगती मैं ये तो नही कहूँगा की मेरी बेटियों के बारें में चावी पुरी तरह से बदल चुकी है लेकिन काफी हद तक ये सोचने पर जरुर मजबूर कर दिया है की क्या लड़कियां वाकई इतनी भोली होती हैं जितना उन्हें समझा जाता है?
पिछले कुछ समय में मेरे सामने कुछ ऐसे मामले आए जिन्होंने मुझे आज की बेटी और उसकी बदलती सोच पर सोचने के लिया मजबूर कर दिया। अभी हाल ही में एक २१ साल की युवती अचानक अपने कार्यस्थल से गायब हो गई। माता- पिता की ये लाडली गुडिया उसके अभिभावकों ही नही बल्कि रिश्तेदारों और पडोसियों में भी काफी लाडली थी। ज़ाहिर है की उसके गायब होने ने पूरे परिवार को हिला कर रख दिया। पोलिस ने जब उस के चल चलन के बारे में पूछना चाह तो अभिभावक भड़क गए। उन्होंने पुलिस पर ही ठीक से जांच न करने का आरोप भी लगा दिया। पिता ने कहा मेरी बेटी बहुत सीधी और समझदार थी। लेकिन अगले ही दिन पुलिस ने उसे बरामद कर लिया। जांच में ये भी सामने आया की वो सीधी लड़की अपने एक अंतर्जतिये प्रेमी के साथ भागी थी औरअपने अपहरण का नाटक रचा था। मजिस्ट्रेट के सामने लड़की ने जो बयां दिया वो और भी चौकाने वाला था। लड़की ने साफ कर दिया की उसे कोई नशीला पदार्थ खिला कर उसका अपहरण किया था। लड़की की बात छोड़ दे तो बात अब उस लड़के की जिसको इस प्यार में मिली जेल की सलाखें।
कुछ ऐसा ही मामला एक बार पहले भी सामने आ चुका है। यहाँ भी एक प्रतिष्ठित परिवार की लड़की गायब होती है, लौटकर आती है और फ़िर कहती है की उसी के प्रेमी ने उसका अपहरण किया है। जिला जेल में ऐसे कई युवा प्यार की सज़ा भुगत रहे हैं जिनके अपने ही प्यार ने उन पर जबरन शादी से लेकर शारीरिक शोषण तक के आरोप लगाये। यहाँ सवाल ये है की क्या वाकई लड़कियां इतनी ही भोली होती हैं? आखिर वो ऐसा करके क्या साबित करना चाहती हैं? अगर उन्हें सच में प्यार है तो फ़िर पुलिस से पकड़े जाने पर वो मुकर क्यों जाती हैं और यदि परिवार के दवाब में ये कदम उठती हैं तो फ़िर पहले ये कदम उठाते हुए एक बार भी क्यों नही सोचती? ये वो लड़कियां जो किसी बड़ी कम्पनी में सेवारत हैं। क्या अपने ही माता पिया के विश्वास को धोखा देने वाली लड़किउँयां भोली हो सकती हैं या फ़िर ये मौका परस्त संस्कृति की शुरुआत है जो अपनी शर्त पर अपने फायदे के लिए जीने की चाह है जिसके आगे किसी की खुशी किसी के सम्मान की कोई कीमत नही रह जाती। आज ये यक्ष प्रश्न उस समाज के सामने भी है जो आधुनिकता और स्टेटस के नाम पर उस अंधी दौड़ में शामिल हो चुका है जहाँ माता पिता को भी अपने बच्चो के लिए टाइम नही है.....
Wednesday, June 11, 2008
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1 comment:
डियर कविलाश, ब्लाग पर तुम्हें पाकर खुशी हुई. बेटियों चिंता छोड़िए, बाबाओं के बारे में भी कुछ ख्याल रखिए, भगवान आपका भला करेंगे,
बृजेश सिंह
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