Wednesday, June 11, 2008

क्यूंकि वो पागल है...!!!


दिनेश सक्सेना
पिछले काफी समय से अपने घर से थोडी दुरी पर मुझे एक जर्जर शरीर में कैद एक रूह दिखाई देती थी...शरीर को जर्जर इसलिए कह रहा ह क्यूंकि वो तो बिल्कुल बेजान हो चुका था या दुसरे लफ्जों में कहे तो उस चलती फिरती शख्सियत के अस्तित्व में उस शरीर का नही बल्कि उस रूह का ही योगदान ज्यादा है। वो रूह ही एहसाह दिलाती थी की ' मैं जिंदा हूँ ' ये अलग बात थी कीउसके आसपास से गुजरने वाले लोग उसे देख कर हँसते टिपण्णी करते और चले जाते। सभ्य समाज में उस औरत को पागल की संज्ञा दी गई थी।
पागल का नाम जेहन में आते ही लोगो के मन में वही फिल्मी स्टाइल के पागल घूमते होंगे। सजे धजे पागलो की जमात में नाचते गाते या फ़िर चिल्लाते...लेकिन ये औरत देखने में बिल्कुल वैसी नही थी। भाई हो भी कैसी उसे पागल का किरदार नही निभाना था बल्कि उसे तो उस किरदार को जीना है। जी रही है वो,, पागल है फ़िर भी अलग है। मेरे मन में उसकी जिंदगी को देखने की ललक जगी। तो मैंने शुरू कर दिया इसी पागल नाम के प्राणी को ध्यान से देखना।
वो औरत सुबह १० बजने के साथ ही अपना सफर शुरू कर देती है और करीब २ किलोमीटर लम्बी सड़क पार कर सड़क के इस किनारे पर पहुँच जाती। मैला कुचैला सलवार सूत, बारीक़ कटे हुए बाल, खाली हाथ कभी ख़ुद से नाराज़ तो कभी ख़ुद से ही खुशी.... मेरे जेहन में रह रहकर सवाल उठते थे की इसमे ऐसा क्या है जो इसे पागल कहा जाए? तभी मैंने देखा की सड़क पार करते हुए उसे अचानक सामने से आती हुई बस दिखती है। उसी के साथ एक और युवती भी रोड क्रॉस कर रही थी। अब जरा देखें वो युवती भागती हुए सड़क पार कर गई लेकिन वो पागल औरत ने बस के वह से निकलने का इंतज़ार किया और फ़िर वह से निकली।
एक दिन कुछ बच्चे उसके पास जाकर उससे हंसाने की कोशिश करते रहे लेकिन वो औरत ख़ुद ही वहाँ से दूर निकल गईमेरा चिंतन और गहरा रहा था की पागल है तो क्यों है? मुझे तो लगता है की वो तो हम सब से ज्यादा समझदार है, ज्यादा धैर्यवान है जो उसने इस दुनिया में अकेले रहना सीख लिया। उसने अकेले ख़ुद को संभालना भी सीख लिया। उसकी अपनी खुशी अपने गम हैं। बस वो उन्हें हमारे साथ बांटना नही चाहती।
एक हमारी वो जिंदगी है जहाँ एक घर के नीचे रहते हुए भी हम एक दुसरे के साथ हंसने बोलने का समय नही निकल पाते। खुशी की वजह मिलने पर भी खुलकर हंसने का समय नही और एक वो है जिसके पास कुछ भी नही फ़िर भी वो हंसती भी है रोटी भी है...
सवाल यहाँ ये भी हैं की उसके भी अपने नाते रिश्तेदार होंगे लेकिन अज उसे रोकने वाला कोई नही और अगर वो सच में पागल है तो उसके इलाज के लिए आगे आने वाला कोई नही।
समाज देखता है तो सिर्फ़ इतना की वो पागल है...ये क्यों नही देखता की वो पागल है या वो समाज भी पागल है जिसने उसे पागल की श्रेणी में पहुँचाया है...क्या उस जैसी तम्मा रूह सडको पर केवल इसलिए हँसी का पत्र बनती रहेंगी क्यूंकि वो पागल है......या उसमे कैद रूह को उसका जामी और आसमा भी मिलेगा.......

क्या लड़कियां वाकई भोली होती हैं....

कविलाश मिश्रा
बेटियों की बाबुल की गुडिया कहा जाता था। कोई उन्हें बाबुल की रानियाँ भी कहता है, मैं भी अभी कुछ समय पहले तक यही सोचता था। लेकिन इसे मेरा सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य की मैं ऐसे पेशे में हूँ जहाँ बहुत सारे भ्रम टूटते देर नही लगती मैं ये तो नही कहूँगा की मेरी बेटियों के बारें में चावी पुरी तरह से बदल चुकी है लेकिन काफी हद तक ये सोचने पर जरुर मजबूर कर दिया है की क्या लड़कियां वाकई इतनी भोली होती हैं जितना उन्हें समझा जाता है?
पिछले कुछ समय में मेरे सामने कुछ ऐसे मामले आए जिन्होंने मुझे आज की बेटी और उसकी बदलती सोच पर सोचने के लिया मजबूर कर दिया। अभी हाल ही में एक २१ साल की युवती अचानक अपने कार्यस्थल से गायब हो गई। माता- पिता की ये लाडली गुडिया उसके अभिभावकों ही नही बल्कि रिश्तेदारों और पडोसियों में भी काफी लाडली थी। ज़ाहिर है की उसके गायब होने ने पूरे परिवार को हिला कर रख दिया। पोलिस ने जब उस के चल चलन के बारे में पूछना चाह तो अभिभावक भड़क गए। उन्होंने पुलिस पर ही ठीक से जांच न करने का आरोप भी लगा दिया। पिता ने कहा मेरी बेटी बहुत सीधी और समझदार थी। लेकिन अगले ही दिन पुलिस ने उसे बरामद कर लिया। जांच में ये भी सामने आया की वो सीधी लड़की अपने एक अंतर्जतिये प्रेमी के साथ भागी थी औरअपने अपहरण का नाटक रचा था। मजिस्ट्रेट के सामने लड़की ने जो बयां दिया वो और भी चौकाने वाला था। लड़की ने साफ कर दिया की उसे कोई नशीला पदार्थ खिला कर उसका अपहरण किया था। लड़की की बात छोड़ दे तो बात अब उस लड़के की जिसको इस प्यार में मिली जेल की सलाखें।
कुछ ऐसा ही मामला एक बार पहले भी सामने आ चुका है। यहाँ भी एक प्रतिष्ठित परिवार की लड़की गायब होती है, लौटकर आती है और फ़िर कहती है की उसी के प्रेमी ने उसका अपहरण किया है। जिला जेल में ऐसे कई युवा प्यार की सज़ा भुगत रहे हैं जिनके अपने ही प्यार ने उन पर जबरन शादी से लेकर शारीरिक शोषण तक के आरोप लगाये। यहाँ सवाल ये है की क्या वाकई लड़कियां इतनी ही भोली होती हैं? आखिर वो ऐसा करके क्या साबित करना चाहती हैं? अगर उन्हें सच में प्यार है तो फ़िर पुलिस से पकड़े जाने पर वो मुकर क्यों जाती हैं और यदि परिवार के दवाब में ये कदम उठती हैं तो फ़िर पहले ये कदम उठाते हुए एक बार भी क्यों नही सोचती? ये वो लड़कियां जो किसी बड़ी कम्पनी में सेवारत हैं। क्या अपने ही माता पिया के विश्वास को धोखा देने वाली लड़किउँयां भोली हो सकती हैं या फ़िर ये मौका परस्त संस्कृति की शुरुआत है जो अपनी शर्त पर अपने फायदे के लिए जीने की चाह है जिसके आगे किसी की खुशी किसी के सम्मान की कोई कीमत नही रह जाती। आज ये यक्ष प्रश्न उस समाज के सामने भी है जो आधुनिकता और स्टेटस के नाम पर उस अंधी दौड़ में शामिल हो चुका है जहाँ माता पिता को भी अपने बच्चो के लिए टाइम नही है.....