इष्ट देव सांकृत्यायन
अभी हाल ही में मैने एक कविता पढी है. चूंकि कविता मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैने उस पर टिप्पणी भी की है। कवि ने कहा है कि उनका मन एक शाश्वत टाईप का नाला है. उससे लगातार सड़ांध आती है. हालांकि उस मन यानी नाले का कोई ओर-छोर नहीं है. उसका छोर क्या है यह तो मुझे भी नहीं दिखा, लेकिन ओर क्या है वह मुझे तुरंत दिख गया. असल में मैं कलियुग का संजय हूँ न, तो मेरे पास एक दिव्यदृष्टि है. अपने कुछ सुपरहिट टाइप भाई बंधुओं की तरह चूंकि मुझे उस दिव्यदृष्टि का असली सदुपयोग करना नहीं आता, इसलिए मैं उसका इसी तरह से फालतू इस्तेमाल करता रहता हूँ. लोग मेरी बेवकूफी को बेवकूफी के बजाय महानता समझें, इसके लिए अपनी उस दृष्टि के फालतू उपयोग के अलावा कुछ और फालतू काम करके मैं यह साबित करने की कोशिश भी करता रहता हूँ मैं उनके जैसा नहीं हूँ. उनसे अलग हूँ.ये अलग बात है कि कई बार तो मुझे खुद अपनी इस बेवकूफी पर हँसी आती है. अरे भाई दुनिया जानती है कि बेवकूफ समझदारों से अलग होते हैं. इसमें बताने और साबित करने की क्या बात है? हाथ कंगन को आरसी क्या, पढे-लिखे को फारसी क्या? साबित तो हमेशा उलटी बातें होती हैं. और हों भी क्यों न! जो लोग देश-विदेश के बडे-बडे सौदों में दलाली के सबूत जेब में लेकर घूमते हैं मुकदमे की सुनवाई के लिए जब वही कचहरी पहुँचते हैं तो उनकी जेब ही कट जाती है. अब बताइए ऎसी स्थिति में दलाली ही क्यों, क़त्ल का भी जुर्म भला कैसे साबित होगा? वैसे भी जल्दी ही दो अक्टूबर आने वाला है और बापू ने कहा है कि घृणा पाप से करो, पापी से नहीं. अब बताइए, जब बापू की बात पूरी दुनिया मानती है तो हम कैसे न मानें?
इसीलिए हम कमीशन खाने या क़त्ल करने वालों को सजा नहीं देते. उन्हें मंत्री बनाते हैं. दे देते हैं उन्हें पूरा मौका कि खा लो और जितना चाहो कमीशन. आखिर कब तक नहीं भरेगा तुम्हारा पेट? कर लो और जितने चाहो क़त्ल या अपहरण, एक दिन तुम भी अंगुलिमाल की तरह बदल जाओगे. ये अलग बात है कि उनके आज तक बदलने की बात कौन कहे, वे अपने परम्परागत संस्कारों को ही और ज्यादा पुख्ता करते चले गए हैं. फिर भी हम हिम्मत नहीं हारे हैं और न ऊबे ही हैं. इसकी प्रेरणा भी हमें अपनी परम्परा से ही मिली है. बापू से भी पहले से हमारे पूर्वज 'दीर्घसूत्री होने' यानी लंबी रेस के घोड़े बनने पर जोर देते आए हैं.इसीलिए देखिए, अपनी आजादी के सठिया जाने के बाद भी हम धैर्यपूर्वक देख रहे हैं और बार-बार उन्हें सत्ता में बने रहने का मौका देते जा रहे हैं.लेकिन उस कविता पर टिप्पणी करते हुए मुझसे एक गलती हो गई. अखबार की नौकरी और वह भी लंबे समय तक पहले पन्ने की तारबाबूगिरी करने का नतीजा यह हुआ है कि मेरा पूरा व्यक्तित्व ही अख्बरिया गया है. थोडा जल्दबाजी का शिकार हो गया हूँ. तो टिप्पणी करने में भी जल्दबाजी कर दी. ज्यादा सोचा नहीं. बस तुरंत जो दिखा वही लिख दिया. महाभारत के संजय की तरह. नए दौर के अपने दूरंदेश साथियों की तरह उसका फालो अप पहले से सोच कर नहीं रखा. बता दिया कि भाई आपके ऐसे बस्सैने मन का अंत चाहे जहाँ हो, पर उसकी आदि भारत की संसद है.बस इसी बात पर रात मुझे बापू यानी गान्ही बाबा ने घेर लिया. पहले तो अपने उपदेशों की लंबी सी झाड़ पिलाई. मैं तो डर ही गया कि कहीँ यह सत्याग्रह या आमरण अनशन ही न करने लगें. पर उन्होने ऐसा कुछ किया नहीं. जैसे पुलिस वाले किसी निरीह प्राणी को भरपूर पीट लेने के बाद उससे पूछते हैं कि बोल तुमने चोरी की थी न? अब बेचारा मरे, क्या न करे? या तो बेचारा पिटे या फिर बिन किए कबूल ले कि हाँ मैने चोरी की थी.बहरहाल, बापू ने मुझसे सवाल किया कि बेटा तुमने संसद ही क्यों लिखा? मुझे तुरंत युधिष्ठिर याद आए, जिन्हे मैने द्वापर में यक्ष के पांच सवाल झेलते देखा था। मुझे लगा कि कहीँ मुझे भी बापू के पांच सवाल न झेलने पड़ें. बल्कि एक बार को तो मुझे लगा कि कहीँ यही द्वापर में यक्ष का रूप लेकर तो नहीं बैठ गए थे. लेकिन जल्दी ही इस शंका का समाधान हो गया. मैने अपने ध्यान की धारा थोड़ी गहरी की तो यक्ष की जगह मुझे राम जेठमलानी बैठे दिखे और बापू ने डांटा भी, 'तुमने सोच कैसे लिया कि ऐसे फालतू के सवाल मैं कर सकता हूँ?'
आख़िरकार मैंने थोड़ी हिम्मत बाँधी और डरते-डरते जवाब दिया, 'बापू क्या बताऊँ। असल में मुझे सारी गंदगी वहीं से निकलती दिखाई देती है. सो लिख दिया. अगर ग़लती हो गई हो तो कृपया माफ़ करें.' 'अरे माफ कैसे कर दूं?' बापू गरजे. जैसे रामायण सीरियल में अरविंद त्रिवेदी गरजा करते थे. 'तुम कभी तहसील के दफ्तर में गए हो?' मैं कहता क्या! बस हाँ में मुंडी हिला दी. बापू तरेरे, 'क्या देखा वहाँ मूर्ख? घुरहू की जमीन निरहू बेच देते हैं और वह भी बीस साल पहले मर चुके मोलहू के नाम. सौ रुपये दिए बग़ैर तुमको अपनी ही जमीन का इंतखाप नहीं मिल सकता और हजार रुपये खर्च कर दो तो सरकार की जमीन तुम्हारे नाम. बताओ इससे ज्यादा गंदगी कहाँ हो सकती है?' मैं क्या करता! फिर से आत्मसमर्पण कर दिया. बापू बोले, 'चल मैं बताता हूँ. कभी अस्पताल गया है?'इस सवाल का जवाब सोचते ही मैं सिर से पैर तक काँप उठा। में फिर अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा था. सफ़ेद कोट पहने और गले में स्टेथस्कोप लटकाए कुछ गिद्ध एक मर चुके मनुष्य के जिंदा परिजनों को नोच रहे थे. मैं जुगुप्सा और भय से काँपता बापू के पैरों पर पड़ता इससे पहले ही बापू ने लगाई मुझे एक लाठी. बोले, 'चल अभी मैं तुझे मैं तुझे नए जमाने के शिक्षा मंदिर दिखाता हूँ.' मैंने आंख बंद की तो सामने एक चमाचम इंटरनेशनल स्कूल था और दूसरी तरफ एक टुटही इन्वर्सिटी. स्कूल में सुन्दर-सुन्दर कपडे पहने मोटे-मोटे जोंक प्लास्टिक के गुद्दों जैसे सुन्दर-सुन्दर बच्चों के हांफते-कांपते अभिभावकों के शरीर पर लिपटे पडे थे. जोंक अंगरेजी झाड़ रहे थे और अभिभावक बेचारे भीतर ही भीतर कराहते हुए उज्बकों की तरह यस् सिर यस् मैम किए जा रहे थे. उधर इन्वर्सिटी में एक वीसी नाम के प्राणी एक हाथ से नेताजी के चरण चंपने और दूसरे हाथ से विद्यार्थियों और सेवार्थियों से नोट बटोरने में लगे थे. वहीं कुछ आज्ञाकारी विद्यार्थी नेता एक निरीह टाइप प्रोफेसर, जो केवल अपना विषय पढ़ाना ही जानता था, उसे ठोंकने में लगे थे. इसके आगे मुझसे देखा नहीं जा रहा था. मैं गिड़गिड़ाया, 'बस बापू.'
पर बापू कहाँ मानने वाले थे. वह गरजे, 'चुप बे. अभी तूने कचहरी कहाँ देखी?' वह दृश्य सोच कर ही मैं काँप उठा. मैंने सपने में भी अपनी आँखें किचकिचा कर बंद कर लीं. मैं सपने में ही गिड़गिड़ाया, 'नहीं बापू. अब रहने दीजिए. मैं तो यह सोच कर काँप रहा हूँ कि इतनी सारी जगहों से निकलने वाले गंदगी के हजारों नाले-परलाने-नद-महानद सब जाते होंगे?'अब बापू खुद रुआंसे हो गए थे. करुणा से भरे स्वर में उन्होने कहा, 'कैसी विडम्बना है कि अब बच्चे अपना घर भी नहीं पहचानते. अरे मूर्ख देख जहाँ तू जी रहा है. मीडिया, साहित्य, सिनेमा ....... इतने तो महासागर हैं इन नालों-महानदों के गंतव्य. और कहाँ जाएंगे.' नींद में ही जो सड़ांध मुझे आई कि मैं असमय जाग उठा. फिर मैंने उस सड़ांध को धन्यवाद दिया. क्योंकि, जैसा कि कहा जाता है, अंग्रेजों से भी न डरने वाले बापू शायद उस सड़ांध के ही भय से भाग चुके थे. मैं आश्वस्त था कि अब वे दुबारा मेरे पास फटकने वाले नहीं थे.
Tuesday, January 29, 2008
Friday, January 25, 2008
मुर्दा आचरण के खिलाफ
इष्ट देव सांकृत्यायन
आज वह दिन है जब आचार्य रजनीश ने इस दुनिया से विदा ली थी. आचार्य रजनीश से मेरी कभी मुलाक़ात तो नहीं हुई, रूबरू कभी उनको देखा भी नहीं. जब तक वह थे तब तक उनके प्रति में भी वैसे ही विरोध भाव से भरा हुआ था, जैसे वे बहुत लोग हैं जिन्होंने उनको ढंग से पढा-सूना या जाना नहीं. और यह कोई आश्चर्यजनक या अनहोनी बात नहीं हुई. मैंने उन्हें जाना अचानक और वह भी कबीर के मार्फ़त.हुआ यों कि में अपनी बड़ी बहन के घर गया हुआ था और वहाँ जीजा जी के कलेक्शन में मुझे एक किताब मिली 'हीरा पायो गाँठ गठियायो'. यह कबीर के कुछ पदों की एक व्याख्या थी. सचमुच यह हीरा ही था, जिसे मैंने गाँठ गठिया लिया. कबीर के पदों की जैसी व्याख्या रजनीश ने की थी, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ तक कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्य के बडे आलोचकों और व्याख्याकारों से भी नहीं मिल पाई थी. हालांकि तब मैंने उसे अपनी काट-छाँट के साथ पढा था. चूंकि पूरी तरह नास्तिक था, आत्मा-परमात्मा में कोई विश्वास मेरा नहीं था, इसलिए जहाँ कहीं भी वैसी कोई बात आई तो मैंने मन ही मन 'सार-सार को गहि रही, थोथा देई उड़ाय' वाले भाव से उसे डिलीट कर दिया.लेकिन चूंकि रजनीश की व्याख्या में मुझे रस मिल था और उससे कम से कम कबीर के प्रति एक नई दृष्टि भी मिलती दिखी थी, इसलिए इसके बाद भी रजनीश को मैंने छोडा नहीं. जहाँ कहीं भी कबीर पर उनकी जो भी किताब मिली वह में पढ़ता रहा. उसका रस लेता रहा और कबीर के साथ ही साथ रजनीश को भी जानता रहा. हालांकि इस क्रम में कहीं न कहीं जीवन को भी में नए ढंग से नए रूप में जानता रहा. पर तब अपने पूर्वाग्रहों के कारण इस बात को स्वीकार कर पाना शायद मेरे लिए मुमकिन नहीं था.तो इस तरह में ये कह सकता हूँ की रजनीश को मैंने जाना कबीर के जरिये. पर बाद में मैंने इस दुनिया की कई और विभूतियों को मैंने जाना रजनीश के मार्फ़त. हुआ यों कि ऐसे ही चलते फिरते मुझे एक व्याख्या मिली रैदास पर. यह भी रजनीश ने ही की थी. अब 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' जैसी उक्ति के लिए जाने जाने वाले रैदास कोई पोंगापंथी बात तो कह नहीं सकते थे. इसलिए उन्हें पढ़ने में भी कोई हर्ज मुझे नहीं लगी और वह किताब भी खरीद ली. पढी तो लगा कि रैदास तो उससे बहुत आगे हैं जहाँ तक में सोचता था. अभी जिस दलित चेतना की बात की जा रही है उसके बडे खरे बीज रैदास के यहाँ मौजूद हैं. और आचार्य रजनीश के ही शब्दों में कहें तो ये बीज दुनिया को जला देने वाले शोले नहीं, मनुष्य के भीता का अन्धकार मिटाने वाले प्रकाशपुंज के रूप में मौजूद हैं.अव्वल तो तब तक में यही नहीं जानता था कि रैदास ने कवितायेँ भी लिखी हैं. मैंने वह किताब पढ़ते हुए जाना कि रेडियो पर हजारों दफा जो भजन में सुन चुका हूँ, 'तुम चन्दन हम पानी' वह रैदास की रचना है. अभी फिर मैंने वह किताब पढ़नी चाही तो घर में नहीं मिली. नाम तक अब उसका याद नहीं रहा तो मैंने ओशो वर्ल्ड के स्वामी कीर्ति से कहा और उन्होने काफी मशक्कत से ढूंढ कर वह किताब मुझे भिजवाई. अब उसे में नए सिरे से पढ़ रहा हूँ. उसे फिर-फिर पढ़ते हुए फिर-फिर वही मजा आता है, जो पहली दफा पढ़ते हुए आया था.रजनीश के प्रति मेरा विरोध भाव अब तक लगभग विदा हो चुका था. क्योंकि मैंने यह जान लिया था कि उनके कहने के बारे में जो कहानियाँ हैं वे कितनी सही हो सकती हैं. इसी बीच एक और किताब मिली. गोरखवाणी. गोरख के बारे में भी में नहीं जानता था कि उन्होने कवितायेँ भी लिखीं हैं और उनकी कविताओं के भाव जो बताते हैं, उनके अनुसार वह उससे बिलकुल अलग थे जो अब उनके चेले कर रहे हैं. खास तौर से ईश्वर के अस्तित्व के सम्बंच में गोरख की जो धारणा है,'बसती न शून्यम, शून्यम न बसतीअगम अगोचर ऐसागगन सिखर महँ बालक बोलैताका नांव धरहुंगे कैसा'और इसकी जैसी व्याख्या आचार्य रजनीश ने दी है वह किसी के भी मन को झकझोर देने के लिए काफी है. असल में यही वह बिंदु है जहाँ से मेरी अनास्था के बन्धन कमजोर पड़ने शुरू हो गए थे. यह आचार्य रजनीश को पढ़ते हुए ही मुझे लगा कि वस्तुतः अनास्था भी एक तरह का बन्धन ही है. इनकार का बन्धन.आचार्य रजनीश, जिन्हें अब लोग ओशो के नाम से जानते हैं, दरअसल हर तरह के बन्धन के विरुद्ध थे. यहाँ तक कि आचरण और नैतिकता के बन्धन के भी विरुद्ध. लेकिन इसका यह अर्थ एकदम नहीं है कि वह पूरे समाज को उच्छ्रिन्खाल और अनैतिक हो जाने की सीख दे रहे थे. दुर्भाग्य की बात यह है कि उनके बारे में उन दिनों दुष्प्रचार यही किया जा रहा था. आश्चर्य की बात है कि हमारे समाज में ऐसा कोई महापुरुष हुआ नहीं जिसके बारे में दुष्प्रचार न किया गया हो. कबीर और तुलसी तक नहीं बचे अपने समय के बौद्धिक माफियाओं के दुष्चक्र से. यह अलग बात है कि हम मर जाने के बाद सबको पूजने लगते हैं. जिंदा विभूतियों को भूखे मारते हैं और मुर्दों के प्रति अपनी अगाध आस्था जताते हैं. शायद हमारी आस्था भी मुर्दा है और यही वजह है जो हमारा देश मुर्दों का देश हो चुका है.आचार्य रजनीश अकेले व्यक्ति हैं जो इस मुर्दा आस्था के खिलाफ खडे हैं. सीना तान कर. उनका प्रहार कोई नैतिक मूल्यों और अच्छे आचरण पर नहीं है. वह प्रहार करते हैं नैतिकता और आचरण के मुर्देपन पर. वह बार-बार यही तो कहते हैं कि ऐसा कोई भी आचरण या मूल्य जो आपका स्वभाव नहीं बना, वह मुर्दा है. ऐसा अच्छा आचरण सिर्फ तब तक रहेगा जब तक आपके भीतर भय है. भय गया कि अच्छाई गई. इस दुनिया ज्यादातर ईमानदार लोग सिर्फ दो कारणों से ईमानदार हैं. या तो इसलिए कि उन्हें बेईमानी का मौका नहीं मिला, या फिर इसलिए कि बेईमानी की हिम्मत नहीं पडी. भा मिला और मौका मिला कि ईमानदारी गई. रजनीश हजार बार कहते हैं कि मुझे नहीं चाहिए भय और दमन की नींव पर टिकी ऎसी ईमानदारी. मुझे तो सोलहो आने ईमानदारी और सौ फीसदी भलमनसी चाहिए . वह तोता रटंत की कोरी सीख या सरकारी दमन से आने वाली नहीं है. वह आएगी सिर्फ ध्यान से.ध्यान के मुद्दे पर फिर कभी.
आज वह दिन है जब आचार्य रजनीश ने इस दुनिया से विदा ली थी. आचार्य रजनीश से मेरी कभी मुलाक़ात तो नहीं हुई, रूबरू कभी उनको देखा भी नहीं. जब तक वह थे तब तक उनके प्रति में भी वैसे ही विरोध भाव से भरा हुआ था, जैसे वे बहुत लोग हैं जिन्होंने उनको ढंग से पढा-सूना या जाना नहीं. और यह कोई आश्चर्यजनक या अनहोनी बात नहीं हुई. मैंने उन्हें जाना अचानक और वह भी कबीर के मार्फ़त.हुआ यों कि में अपनी बड़ी बहन के घर गया हुआ था और वहाँ जीजा जी के कलेक्शन में मुझे एक किताब मिली 'हीरा पायो गाँठ गठियायो'. यह कबीर के कुछ पदों की एक व्याख्या थी. सचमुच यह हीरा ही था, जिसे मैंने गाँठ गठिया लिया. कबीर के पदों की जैसी व्याख्या रजनीश ने की थी, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ तक कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्य के बडे आलोचकों और व्याख्याकारों से भी नहीं मिल पाई थी. हालांकि तब मैंने उसे अपनी काट-छाँट के साथ पढा था. चूंकि पूरी तरह नास्तिक था, आत्मा-परमात्मा में कोई विश्वास मेरा नहीं था, इसलिए जहाँ कहीं भी वैसी कोई बात आई तो मैंने मन ही मन 'सार-सार को गहि रही, थोथा देई उड़ाय' वाले भाव से उसे डिलीट कर दिया.लेकिन चूंकि रजनीश की व्याख्या में मुझे रस मिल था और उससे कम से कम कबीर के प्रति एक नई दृष्टि भी मिलती दिखी थी, इसलिए इसके बाद भी रजनीश को मैंने छोडा नहीं. जहाँ कहीं भी कबीर पर उनकी जो भी किताब मिली वह में पढ़ता रहा. उसका रस लेता रहा और कबीर के साथ ही साथ रजनीश को भी जानता रहा. हालांकि इस क्रम में कहीं न कहीं जीवन को भी में नए ढंग से नए रूप में जानता रहा. पर तब अपने पूर्वाग्रहों के कारण इस बात को स्वीकार कर पाना शायद मेरे लिए मुमकिन नहीं था.तो इस तरह में ये कह सकता हूँ की रजनीश को मैंने जाना कबीर के जरिये. पर बाद में मैंने इस दुनिया की कई और विभूतियों को मैंने जाना रजनीश के मार्फ़त. हुआ यों कि ऐसे ही चलते फिरते मुझे एक व्याख्या मिली रैदास पर. यह भी रजनीश ने ही की थी. अब 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' जैसी उक्ति के लिए जाने जाने वाले रैदास कोई पोंगापंथी बात तो कह नहीं सकते थे. इसलिए उन्हें पढ़ने में भी कोई हर्ज मुझे नहीं लगी और वह किताब भी खरीद ली. पढी तो लगा कि रैदास तो उससे बहुत आगे हैं जहाँ तक में सोचता था. अभी जिस दलित चेतना की बात की जा रही है उसके बडे खरे बीज रैदास के यहाँ मौजूद हैं. और आचार्य रजनीश के ही शब्दों में कहें तो ये बीज दुनिया को जला देने वाले शोले नहीं, मनुष्य के भीता का अन्धकार मिटाने वाले प्रकाशपुंज के रूप में मौजूद हैं.अव्वल तो तब तक में यही नहीं जानता था कि रैदास ने कवितायेँ भी लिखी हैं. मैंने वह किताब पढ़ते हुए जाना कि रेडियो पर हजारों दफा जो भजन में सुन चुका हूँ, 'तुम चन्दन हम पानी' वह रैदास की रचना है. अभी फिर मैंने वह किताब पढ़नी चाही तो घर में नहीं मिली. नाम तक अब उसका याद नहीं रहा तो मैंने ओशो वर्ल्ड के स्वामी कीर्ति से कहा और उन्होने काफी मशक्कत से ढूंढ कर वह किताब मुझे भिजवाई. अब उसे में नए सिरे से पढ़ रहा हूँ. उसे फिर-फिर पढ़ते हुए फिर-फिर वही मजा आता है, जो पहली दफा पढ़ते हुए आया था.रजनीश के प्रति मेरा विरोध भाव अब तक लगभग विदा हो चुका था. क्योंकि मैंने यह जान लिया था कि उनके कहने के बारे में जो कहानियाँ हैं वे कितनी सही हो सकती हैं. इसी बीच एक और किताब मिली. गोरखवाणी. गोरख के बारे में भी में नहीं जानता था कि उन्होने कवितायेँ भी लिखीं हैं और उनकी कविताओं के भाव जो बताते हैं, उनके अनुसार वह उससे बिलकुल अलग थे जो अब उनके चेले कर रहे हैं. खास तौर से ईश्वर के अस्तित्व के सम्बंच में गोरख की जो धारणा है,'बसती न शून्यम, शून्यम न बसतीअगम अगोचर ऐसागगन सिखर महँ बालक बोलैताका नांव धरहुंगे कैसा'और इसकी जैसी व्याख्या आचार्य रजनीश ने दी है वह किसी के भी मन को झकझोर देने के लिए काफी है. असल में यही वह बिंदु है जहाँ से मेरी अनास्था के बन्धन कमजोर पड़ने शुरू हो गए थे. यह आचार्य रजनीश को पढ़ते हुए ही मुझे लगा कि वस्तुतः अनास्था भी एक तरह का बन्धन ही है. इनकार का बन्धन.आचार्य रजनीश, जिन्हें अब लोग ओशो के नाम से जानते हैं, दरअसल हर तरह के बन्धन के विरुद्ध थे. यहाँ तक कि आचरण और नैतिकता के बन्धन के भी विरुद्ध. लेकिन इसका यह अर्थ एकदम नहीं है कि वह पूरे समाज को उच्छ्रिन्खाल और अनैतिक हो जाने की सीख दे रहे थे. दुर्भाग्य की बात यह है कि उनके बारे में उन दिनों दुष्प्रचार यही किया जा रहा था. आश्चर्य की बात है कि हमारे समाज में ऐसा कोई महापुरुष हुआ नहीं जिसके बारे में दुष्प्रचार न किया गया हो. कबीर और तुलसी तक नहीं बचे अपने समय के बौद्धिक माफियाओं के दुष्चक्र से. यह अलग बात है कि हम मर जाने के बाद सबको पूजने लगते हैं. जिंदा विभूतियों को भूखे मारते हैं और मुर्दों के प्रति अपनी अगाध आस्था जताते हैं. शायद हमारी आस्था भी मुर्दा है और यही वजह है जो हमारा देश मुर्दों का देश हो चुका है.आचार्य रजनीश अकेले व्यक्ति हैं जो इस मुर्दा आस्था के खिलाफ खडे हैं. सीना तान कर. उनका प्रहार कोई नैतिक मूल्यों और अच्छे आचरण पर नहीं है. वह प्रहार करते हैं नैतिकता और आचरण के मुर्देपन पर. वह बार-बार यही तो कहते हैं कि ऐसा कोई भी आचरण या मूल्य जो आपका स्वभाव नहीं बना, वह मुर्दा है. ऐसा अच्छा आचरण सिर्फ तब तक रहेगा जब तक आपके भीतर भय है. भय गया कि अच्छाई गई. इस दुनिया ज्यादातर ईमानदार लोग सिर्फ दो कारणों से ईमानदार हैं. या तो इसलिए कि उन्हें बेईमानी का मौका नहीं मिला, या फिर इसलिए कि बेईमानी की हिम्मत नहीं पडी. भा मिला और मौका मिला कि ईमानदारी गई. रजनीश हजार बार कहते हैं कि मुझे नहीं चाहिए भय और दमन की नींव पर टिकी ऎसी ईमानदारी. मुझे तो सोलहो आने ईमानदारी और सौ फीसदी भलमनसी चाहिए . वह तोता रटंत की कोरी सीख या सरकारी दमन से आने वाली नहीं है. वह आएगी सिर्फ ध्यान से.ध्यान के मुद्दे पर फिर कभी.
Subscribe to:
Posts (Atom)